अधिकारों की इस लड़ाई में आम जनता कहां?
लोकतांत्रिक प्रणाली को सहज रूप से चलाने के लिए जरूरी है कि लोकतंत्र के सभी स्तंभ एक दुसरे से समंजस्य बना कर चलें. सभी स्तंभों के बेहतर तालमेल से ही एक स्वस्थ लोकतंत्र का वातावरण बना रहता है. किन्तु भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में पिछले कुछ महीनों से देश के चारों स्तंभ की स्थिति किसी से छुपी नहीं है.इनदिनों जजों की नियुक्ति को लेकर केंद्र सरकार और न्यायपालिका में जो गतिरोध खुलकर सामने आ रहा है वो लोकतन्त्र के लिए किसी भी सूरतेहाल में सही नहीं है. सीधे तौर पर हम कहें तो न्यायपालिका और सरकार में अधिकारों की लड़ाई अब खुलकर लड़ी जा रही है. दरअसल जजों की नियुक्ति के लिए सरकार ने राष्ट्रीय न्यायायिक नियुक्ति आयोग विधेयक को संसद के दोनों सदनों में पास कराया था. जिसमें सरकार ने दावा किया था कि एनजेएसी प्रकिया लागू होने के पश्चात जजों की न्युक्ति कॉलेजियम की अपेक्षा पारदर्शिता आएगी.लेकिन इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इस आयोग के आने से न्यायपालिका में सरकार का दखल बढ़ जायेगा. वहीँ, जजों की नियुक्ति जिस कॉलेजियम प्रणाली के तहत हो रही थी उसे ही जारी रखा गया. गौर करें तो अपने फैसले के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को स्वीकारा था कि कॉलेजियम में जो कमियां हैं उसे जल्द ही दूर किया जायेगा. अब सवाल ये उठता है कि न्यायपालिका ने कॉलेजियम को लेकर सुधार की दिशा में क्या कदम उठाये हैं? जाहिर है कि कॉलेजियम व्यवस्था में भारी खामियां सामने आई हैं. मसलन इस प्रणाली में पारदर्शिता का आभाव देखने को मिलता रहा है. बंद कमरों में जजों की न्युक्ति की जाती रही है, व्यक्तिगत और प्रोफेशनल प्रोफाइल जांचने की कोई नियामक आज तक तय नहीं हो पायी है. जिसके चलते इसके पारदर्शिता को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. कुछ लोगों ने तो कॉलेजियम प्रणाली पर आपत्ति जताते हुए भाई–भतीजावाद एवं अपने चहेतों की नियुक्ति करने का आरोप भी लगाया. जो हमें आएं दिन खबरों के माध्यम से देखने को मिलता है. बहरहाल, देश के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री के संबोधन में न्यायपालिका का जिक्र नहीं होने पर निराशा जाहिर की. इससे पहले भी मुख्य न्यायाधीश अदालतों पर मुकदमों की बढ़ती संख्या को लेकर कई बार अपनी चिंता जता चुके हैं.जाहिर है कि इस टकराव के बाद से सुप्रीम कोर्ट ने जजों की न्युक्ति के लिए जो मसौदा सरकार के पास भेजा है सरकार ने इस मसौदे पर कोई सक्रियता नहीं दिखाई है.उन्होंने सरकार से अपील की, कि सरकार जल्द से जल्द न्यायाधीशों की नियुक्ति को हरी झंडी दे, ताकि लंबित मुकदमों का निपटारा जल्द से जल्द हो सके. गौरतलब है कि भारतीय न्याय तंत्र मुकदमों के बढ़ते ढेर तले कराह रही है. किन्तु न तो सरकार इसकी सूद ले रही है और न ही न्यायपालिका उन समस्त खामियों पर नजर रख पा रही है. इन सब के बीच इसकी मार आम आदमी झेल रहा है.न्याय प्रकिया में आम जनता उलझ कर रह जाती है.एक मुकदमें के निपटाने में पीढियां खप जा रही फिर न्यायपालिका से लोगों को विश्वास भी कम होनें लगा है जिसके कारणों की एक लम्बी फेहरिस्त है.आज जनता के हितों को ध्यान रखते हुए यह जरूरी है कि दोनों स्तंभों को इस गतिरोध को समाप्त करना होगा इस दिशा में साथ मिलकर काम करना होगा.सरकार को न्यायपालिका के साथ परस्पर सम्मान का भाव रखना होगा तो वहीँ न्यायपालिका को भी सरकार से समन्वय बनानें की जरूरत है.निश्चित तौर पर इस गतिरोध जिनके मुकदमें लंबित हैं उनके लिए दिन –ब –दिन उसके निपटारे की अवधि बढती जा रही है न्यायपालिका और कार्यपालिका को यह भूलना नहीं चाहिए कि इन दोनों के टकराव के चलतें आम जनता पीस रही है. न्यायिक सुधार की आस सभी लगाएं बैठे है इस दिशा में बड़े सुधार की दरकार है.केवल जजों की न्युक्ति भर से लंबित मामलें अपने समयावधि में निपट जायेंगें हमें इस गफलत से बाहर आना होगा क्योंकि न्यायालय की जटिल प्रक्रियाओं से हम सब अवगत हैं. इसीलिए जरुरी हो जाता है कि महज जजों की न्युक्ति ही नहीं वरन हमें न्यायपालिका की उन खामियों की जड़ो की तरफ ध्यान आकृष्ट करना होगा जहाँ से मुकदमें शुरू होतें हैं जाहिर है कि मुकदमें की शुरुआत जिला न्यायालय से होती है वहां की स्थिति और दयनीय हैं आयें दिन हमें भ्रष्टाचार सहित कई मामलें सामने आतें हैं.दीवानी व फौजदारी के मुकदमों में तो फर्जी दस्तेवेजों तक की बात सामने आती है.भारतीय न्याय व्यवस्था की रफ्तार कितनी धीमी है.ये बात किसी से छिपी नहीं है,आये दिन हम देखतें है कि मुकदमों के फैसले आने में साल ही नहीं अपितु दशक लग जाते हैं.ये हमारी न्याय व्यवस्था का स्याह सच है,जिससे मुंह नही मोड़ा जा सकता.देश के सभी अदालतों में बढ़ते मुकदमों और घटते जजों की संख्या न्याय की अवधारणा पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाती है.गौरतलब है कि 1987 में लॉ कमीशन ने प्रति 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 50 करनें की अनुशंसा की थी लेकिन आज 29 साल बाद भी हमारे हुक्मरानों ने लॉ कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की जहमत नही उठाई.ये हक़ीकत है कि पिछले दो दशकों से अदालतों के बढ़ते कामों पर किसी ने गौर नही किया.जजों के कामों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई.केसों की संख्यां रोज़ बढ़ते चले गए लेकिन जजों की संख्या में कोई इजाफा नही हुआ.इस 29 साल के दरमियान कई मुख्य न्यायाधीश बदले,हुकूमतें बदली परंतु किसी का ध्यान इस गंभीर समस्या की तरफ नही गया लिहाजा आज 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या महज 15 रह गई है.जिससे स्थिति और भयावह होती चली जा रही है.गौरतलब है कि देश लगभग 39 लाख केस उच्च न्यायालयों में लंबित हैं तो देश के अन्य न्यायालयों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमों की फाइलों पर धुल जम रहें है.देश के कोर्ट कचहरियों में फाइलों की संख्या बढ़ती जा रही है,लंबित मुकदमों की संख्या में हर रोज इजाफ़ा हो रहा है.न्याय की अवधारणा है कि जनता को न्याय सुलभ और त्वरित मिलें.परन्तुं आज की स्थिति इसके ठीक विपरीत है.आमजन को इंसाफ पाने में एड़ियाँ घिस जा रही,पीढियां खप जा रही है.त्वरित न्याय अब स्वप्न समान हो गया है.लोग कानूनों के मकड़जाल में उलझ कर रह जा रहें हैं.आम जनमानस को इस मकड़जाल से मुक्ति मिले.जनता के हितों की पूर्ति के लिए न्यायपालिका और सरकार दोनों को साथ काम करना होगा इस टकराव को समाप्त करने के लिए बीच का कोई रास्ता निकलना होगा.
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