कबतक जारी रहेगा गतिरोध ?

    विगत दो साल से सरकार और न्यायपालिका के बीच जमी बर्फ पिघलने का नाम नहीं ले रही.यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई बार सार्वजनिक मंचों से कभी न्यायपालिका सरकार को निशाने पर लेने से नहीं चुकती तो ,सरकार भी न्यायपालिका को कार्यपालिका के कामों में दखल न देने की सलाह देने से बाज़ नहीं आती.लेकिन, प्रधानमंत्री हर बार इस जमी बर्फ को मंच से ही पिघलाने की कवायद करते नजर आते हैं. विगत दिनों संविधान दिवस के मौके पर कुछ ऐसा ही हुआ विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने मंच से ही न्यायपालिका को आड़े हाथो लेते हुए अपरोक्ष रूप से पुन: राष्ट्रीय न्यायिक न्युक्ति आयोग की वकालत करने से नहीं चुके.वहीँ मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा ने रविशंकर प्रसाद को जवाब देते हुए कहा कि नगारिकों के मौलिक अधिकार सबसे ऊपर हैं. उन्होंने संविधान द्वारा न्यायपालिका की तय की गई भूमिका को याद दिलाते हुए कहा कि संविधान ने न्यायपालिका को संविधान के संरक्षक की भूमिका सौंपी है ,जिसका निर्वहन न्यायपालिका समय-समय पर करती आई है. इससे पहले केन्द्रीय मंत्री अरूण जेटली  ने भी न्यायिक सक्रियता पर सवाल उठाते हुए कहा था कि न्यायपालिका सरकार के कामकाज में दखल दे रही है.केंद्र में मोदी सरकार के स्थापित होने के पश्चात् कई ऐसे मौके आए हैं जब सरकार और न्यायपालिका का गतिरोध खुलकर सामने आया है .सरकार और न्यायपलिका के बीच यह तकरार किसी भी सूरतेहाल में लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है.लोकतांत्रिक प्रणाली को सहज रूप से चलाने के लिए जरूरी है कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभ एक दुसरे से सामंजस्य बना कर चलें.तीनों स्तंभों  के बेहतर तालमेल से ही एक स्वस्थ लोकतंत्र का वातावरण बना रहता है. इन सबके के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जरूर यह भरोसे देते आएं हैं कि सरकार न्यायपालिका का पूरा सम्मान करती है और इससे जुड़े मसले को गंभीरता से लेती है.संविधान दिवस पर भी प्रधानमंत्री मोदी ने लोकतंत्र तीनों स्तम्भों को एक दुसरे पर निशाना नहीं बनाने की अपील करते हुए कहा कि तीनों स्तंभों में संतुलन हमारे संविधान की रीढ़ है और हमारा दायित्व बनता है कि हम इसे बनाये रखें.सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री के इस नसीहत से न्यायपालिका और सरकार के बीच का यह तकरार समाप्त हो जायेगा ? यह समझने के लिए हमें सबसे पहले विवाद की जड़ को समझना होगा.दरअसल, जजों की नियुक्ति के लिए सरकार ने  राष्ट्रीय न्यायिक  नियुक्ति आयोग विधेयक को संसद के दोनों सदनों में पास कराया था.जिसमें सरकार ने दावा किया था कि एनजेएसी प्रकिया लागू होने के पश्चात जजों की न्युक्ति कॉलेजियम की अपेक्षा अधिक पारदर्शिता के साथ हो सकेगी.किन्तु इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इस आयोग के आने से न्यायपालिका में सरकार का दखल बढ़ जायेगा. वहीँ, जजों की नियुक्ति जिस कॉलेजियम प्रणाली के तहत हो रही थी,उसे ही जारी रखा गया.सरकार और न्यायपालिका के बीच अपने अधिकार की लड़ाई यहीं से शुरू हुई,जो अभी तक चल रही है.इन दो सालों में न्यायपालिका और सरकार दोनों ने इस टकराव को दूर करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया लिहाज़ा यह टकराव कब तक समाप्त होगा यह कहना मुश्किल है.गौर करें तो जब सुप्रीम कोर्ट ने इस विधेयक पर फैसला सुनाया था तब अपने फैसले के दौरान कोर्ट ने भी इस बात को स्वीकारा था कि कॉलेजियम में जो कमियां हैं उसे जल्द ही दूर किया जायेगा. अब सवाल ये उठता है कि न्यायपालिका ने कॉलेजियम में सुधार की दिशा में अभी तक क्या महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं ? जाहिर है कि कॉलेजियम व्यवस्था में भारी खामियां सामने आई हैं.मसलन इस प्रणाली में पारदर्शिता का घोर आभाव देखने को मिलता रहा है. बंद कमरों में जजों की न्युक्ति की जाती रही है, व्यक्तिगत और प्रोफेशनल प्रोफाइल जांचने की कोई नियामक आज तक तय नहीं हो पाया है. जिसके चलते इसके पारदर्शिता को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. कुछ लोगों ने तो कॉलेजियम प्रणाली पर आपत्ति जताते हुए भाईभतीजावाद एवं अपने चहेतों की नियुक्ति करने का आरोप भी लगाया. जो हमें आएं दिन खबरों के माध्यम से देखने को भी मिलता है.न्यायपालिका पर जब इस तरह के संशय व्यक्त होने लगे तो मामला गंभीर हो जाता है.बहरहाल,इस दोनों स्तंभों में अधिकारों के खींचतान का असर लोकतांत्रिक मूल्यों व नैतिकता से इतर देश की न्याय व्यवस्था पर पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है.देश के कोर्ट-कचहरियों में फाइलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है,लंबित मुकदमों की फेहरिस्त हर रोज़ बढ़ती जा रही है.फिर भी हमारे लिए गौरव की बात है कि आज भी आमजन का विश्वास न्यायपालिका पर बना हुआ है.अगर उसे शासन से न्याय की उम्मीद नही बचती तब वो न्यायपालिका ने शरण में जाता है.ताकि उसे उसका हक अथवा न्याय मिल सकें.लेकिन, न्यायपालिका की सुस्त कार्यशैली एवं इसमें बढ़ते भ्रष्टाचार आदालतों की छवि को धूमिल कर रहे हैं. ग्रामीण क्षेत्रों का आलम ये है कि लोग कोर्ट -कचहरी के नाम पर ही सिर पकड़ लेते है,इसका मतलब ये नही कि उनका अदालती प्रक्रिय से भरोसा उठ गया है,वरन इसलिए कि न्यायालय की लचर व सुस्त कार्यप्रणाली से उन्हें तमाम प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. जो अपने आप में न्यायालय की चरमराती वर्तमान स्थिति को बयाँ कर रहा है.अगर देश की अदालतों में लंबित मुकदमों पर नज़र डालें तो स्थिति और स्पष्ट हो सकेगी ताज़े आकड़ों के अनुसार जुलाई मध्य तक सुप्रीम कोर्ट में लगभग 58,438 मामले आज भी लंबित हैं,जो पिछले साल की अपेक्षा कम है.वहीँ देश के उच्च न्यायलयों में 40.15 लाख मामले अभी भी उस समय का इंतजार कर रहे जब उन्हें न्याय की तराज़ू पर रखा जाएगा.देश के निचली अदालतों की स्थिति तो और ज्यादा गंभीर है यहाँ 2016 के अंत तक लंबित मुकदमों कि संख्या 2.74 करोड़ से अधिक पहुँच गई है.इन आकड़ों को देखकर स्पष्ट होता है कि भारतीय न्याय तंत्र मुकदमों के बढ़ते बोझ तले कराह रही है. किन्तु न तो सरकार इसकी सुध ले रही है और न ही न्यायपालिका उन समस्त खामियों के मद्देनजर कोई ठोस कदम उठा रही है.देश में निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जजों की भारी कमी है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता.हालाँकि सरकार ने तमाम टकराव के बावजूद न्यायपालिका का सम्मान व इन दिक्कतों को समझते हुए 2016 में 126 जजों की न्युक्ति को हरी झंडी दी, जो हाल के वर्षों में सर्वाधिक था.सवाल यह उठता है कि जजों की न्युक्ति हो जाने से समस्याएं समाप्त हो जाएँगी ? केवल जजों की न्युक्ति भर से लंबित मामलें अपने समयावधि में निपट जायेंगें हमें इस गफलत से बाहर आना होगा.क्योंकि न्यायालय की जटिल प्रक्रियाओं से हम सब अवगत हैं. इसीलिए जरुरी हो जाता है कि महज जजों की न्युक्ति ही नहीं, वरन हमें न्यायपालिका की उन खामियों की जड़ो की तरफ भी ध्यान आकृष्ट करना होगा.जहाँ से समस्याएँ शुरू हो रहीं हैं. इसके अतिरिक्त लंबित पड़े मामलों के जल्द निपटारे के लिए समूची अदालती प्रक्रिया को भी पूर्ण रूप से तकनीकी से जोड़ा जाना चाहिए.तकनीकी का ज्यादा इस्तेमाल होने से न्याय में भी तेज़ी आएगी और पारदर्शिता भी बनी रहेगी.बहरहाल,न्याय की अवधारणा है कि जनता को न्याय सुलभ और त्वरित प्राप्त हो, परन्तुं आज की स्थिति इसके ठीक विपरीत है.आमजन को इंसाफ पाने में एड़ियाँ घिस जा रही,पीढियां खप जा रही है.त्वरित न्याय अब स्वप्न समान हो गया है. अर्थात देश की जनता और लोकतांत्रिक गरिमा को बनाये रखने के लिए जरूरी है कि न्यायपालिका और सरकार के बीच का यह गतिरोध अब समाप्त हो तथा न्यायपालिका में बड़े सुधारों की जो बात निकलकर सामने आ रही हैं उसे अमल करने की दिशा में कदम बढ़ाया जाए. .          x
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