जवाबदेही तय करने वाले नियम

 

देश में सोशल मीडिया को लेकर केंद्र सरकार द्वारा लाए गए नए आईटी नियमों पर बहस छिड़ी हुई है. हालाँकि तमाम विरोध व आनाकानी के पश्चात सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म  फरवरी में लाए गए नियम को मनाने के लिए राजी हो गए हैं. इस बहस के दो मुख्य तर्क निकल कर सामने आ रहे हैं. पहला, नए नियम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बाधक होंगे और दूसरा,  यह नियम सोशल मीडिया को अधिक पारदर्शी और जिम्मेदार बनायेंगे. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात करें तो यह भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार है. सोशल मीडिया के आने से निश्चित तौर पर इसको अधिक बल मिला है किन्तु समय के साथ इसका दुरुपयोग भी बढ़ता चला जा रहा था. तथ्यों के धरातल पर भी हमें इसका मुल्यांकन करना चाहिए. आखिर क्या कारण है कि सरकार को ऐसे नियम लाने पड़े? फरवरी में आए इस नियम को समझें तो स्पष्ट पता चलता है कि बेलगाम घोड़े की भांति दौड़ते सोशल मीडिया पर एक आवश्यक अंकुश लगाना जरूरी था. यह समय की आवश्कयता भी थी. हम देखें तो आज फेक न्यूज़ और फर्जी आंकड़े,भड़काऊ सामग्री  सबसे ज्यादा प्रचारित-प्रसारित इन्ही माध्यम से हो रहे हैं. गौरतलब है कि नए नियम में शिकायत व निवारण तंत्र को स्थापित करने की भी बात कही गई है, जिसमें उपयोगकर्ता की शिकायत मिलने पर 24 घंटे के अंदर उसे दर्ज करना होगा तथा 15 दिन के अंदर शिकायत पर कार्यवाही भी करनी होगी तथा आपत्तिजनक सामग्री को एक समयसीमा के अंदर हटाने के भी निर्देश दिए गए हैं. नए नियम में सोशल मीडिया पर सबसे पहले भड़काऊ सामग्री किसके द्वारा प्रेषित की गई इसकी पहचान करने की बात कही गई है. भारत के मौजूदा हालात पर गौर करें यह नियम बहुत पहले बन जाना चाहिए था क्योंकि आज सोशल मीडिया पर बहुतेरे भड़काऊ सामग्री मौजूद है जो समाज में वैमनस्यता और घृणा पैदा करने का कारक बन रही है. सरकार द्वारा बार-बार चिंता किए जाने के बाद भी इन कम्पनियों कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई. इस बहस एक प्रमुख बिंदु यह भी होना चाहिए कि ऐसे नियम बनाने वाला भारत पहला देश है ? विश्व के कई देश सोशल मीडिया पर निगरानी और उसकी जवाबदेही तय करने के लिए कानून बनाए हैं तथा  इन कम्पनियों ने अपनी सहमति भी जताई है. भारत में ये कम्पनियां अड़ियल रुख क्यों अख्तियार कर रही हैं. क्या वह खुद को भारत के संविधान से बड़ा समझने लगी हैं ? जिस तरह से विवाद  गहराता गया उससे तो यही लगता है कि इन कम्पनियों ने यही मुगालता पाल लिया था. बहरहाल, विश्व के अन्य देशों में सोशल मीडिया कैसे रेगुलेट होती हैं हमें इसको भी समझना होगा. जर्मनी में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक और नस्लीय भेदभाव पैदा करने वाले कंटेट के प्रति जवाबदेही तय करने वाला कड़ा कानून 2018 में पारित किया था. इस कानून के अनुसार एक तय समयावधि में आपत्तिजनक कंटेट अपने प्लेटफोर्म से हटाना होगा ऐसा नहीं करने पर 50 मिलियन यूरो का भारी जुर्माना देना होगा. रूस में भीं सोशल मीडिया के रेगुलेशन को नए कानून पारित किए जिसमें आपतकालीन स्थिति में वह वेब से कनेक्शन बंद करने की अनुमति देते हैं. ऑस्ट्रेलिया ने इस विषय की गंभीरता को पहले ही समझ ही था 2015 में ही उसनें एक सुरक्षा आयुक्त बनाया. 2019 में घृणित कंटेट अधिनियम बनाया जिसके तहत सोशल मीडिया कम्पनियों को आपराधिक दंड के साथ वैश्विक कारोबार का 10% तक  वित्तीय दंड का लगाया जा सकता है. यूरोपीय संघ के कानून की चर्चा आज सब जगह हो रही है. यूरोपीय संघ ने 2016 में जनरल डेटा प्रोटेक्शन  रेगुलेशन पेश किया जिसके तहत जो कम्पनियां उपयोगकर्ताओं के डेटा को इकट्टा करते हैं उनके लिए नियम तय किए गए. इसमें कॉपीराइट तक जी जिम्मेदारी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को दी गई. आतंकवाद से जुड़े कंटेट को लेकर यूरोपीय यूनियन इतना सख्त है कि एक घंटे के भीतर अगर प्लेटफोर्म कंटेट को नहीं हटाता है तो उसपर कड़ी कार्यवाही का प्रावधान है. इसी तरह अमेरिका में फेडरल कम्यूनिकेशन कमीशन है. यहाँ सोशल मीडिया कम्पनियों की पक्षधरता साफ़ दिखाई देती है. कैपिटल हिल में हुई हिंसा के बाद इन कम्पनियों ने स्वतः फुर्ती दिखाते हुए आपत्तिजनक सोशल मीडिया एकाउंट्स को बंद करने शुरू कर दिए. वहाँ किसी भी विवादित मसले पर इन कम्पनियों के अधिकारी अमेरिकी संसद में पेश हो जाते हैं. न्यायालय के फैसलों पर इनकी जवाबदेही तय हो जाती है. इस तरह विश्व के कई देश अपनी एकता, अखंडता को बनाए रखने के लिए सोशल मीडिया की सीमा तय करके उन्हें जवाबदेह बनाते हैं. आज भारत भी अपनी एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए एक वैधानिक कार्य कर रहा है तो यह कम्पनियां हायतौबा मचा रही है. यही सोशल मीडिया प्लेटफोर्म अमेरिका और यूरोप देशों में आतंकवाद आदि से जुड़ी जानकारी सरकार को बिना देर किए उपलब्ध कराते हैं. वहीँ भारत में यह कम्पनियां निजता का अधिकार की दुहाई देकर अपने दोहरे रवैये को उजागर कर रही हैं. भारत की एकता, अखंडता को खंडित तथा हिंसा की सामग्री का निर्माण करने वालों पर शिकंजा कसा जाता है तो इससे किसको दिक्कत है? हमारे सामने सैकड़ो उदाहरण मौजूद है जब भी कोई अप्रिय घटना होती है तमाम वीडियो और तस्वीर बदनीयत से वायरल की जाती है. दिल्ली के दंगे हो अथवा इसी वर्ष 26 जनवरी को  किसानों का उपद्रव इस उपद्रव में सोशल मीडिया ने आग में घी डालने का काम किया था. यह केवल हिंसा तक सीमित नहीं है आज आपको सोशल मीडिया पर सैकड़ो वीडियो दिख जाएंगे हो कोरोना के टीका को लेकर भ्रम की स्थिति खड़ा करने का काम कर रहे हैं.  इन सभी बिंदुओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं कि सरकार द्वारा लाए गए  नियम सोशल मीडिया को और अधिक सशक्त करने वाले हैं तथा इससे सोशल मीडिया की विश्वसनीयता और पारदर्शिता को भी बल मिलेगा.

 

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