सिर्फ हंगामा खड़ा करना मकसद ?

यह देश का दुर्भाग्य है कि संसद हंगामे का सबसे उपयुक्त अड्डा बन गया है. यह बात हैरान करती है कि सत्र की शुरुआत होने से पहले सभी पार्टियों की एक औपचारिक बैठक होती है, जिसमें यह भाव निकलकर आता है कि संभवतः इसबार का सत्र पहले की अपेक्षा अधिक कामकाजी हो, स्वाभविक है कि उस बैठक का मूल आपसी समंजस्य बैठना ही होता है. किन्तु सदन में जो नजर आता है उससे यही  प्रतीत होता है कि यह बैठक अब महत्वहीन हो चुकी है. लोकसभा हो अथवा राज्यसभा देश की जनता इस आस में रहती कि संसद में उनसे जुड़े महत्वपूर्ण विषय पर उनके जनप्रितिनिधि चर्चा करेंगे और उनकी समस्याओं के निराकरण की दिशा में ठोस प्रयास करेगे. परन्तु हमारे हुक्मरान हरबार इस आस पर पानी फेरते हुए दिखाई देते हैं. अब तो ऐसा लगने लगा है मानों हमारे जनप्रतिनिधियों में चर्चा की बजाय हंगामा करने में दिलचस्पी ज्यादा हो गई है. मानसून सत्र में अभीतक जो दृश्य देखने को मिल रहा है वह स्पष्ट संकेत दे रहा है कि विपक्षी दल यह ठान कर आए हैं कि सदन नहीं चलने देंगे. यह दृश्य देखकर आम जनता के मन में क्या विचार आ रहा होगा ? देश इनसे क्या उम्मीद करे ? इस गतिरोध से क्या हासिल होने वाला है ? यह सवाल सबके मन में कौंध रहा है. यह एक प्रमाणिक सत्य है कि जिस भी मुद्दे पर कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने सरकार को घेरने का प्रयास किया है. सरकार के तर्कपूर्ण जवाबों के आगे उनके झूठ और संशय खड़े करने वाली मानसिकता औंधे मुंह गिरी है. गौरतलब है कि संवादप्रिय सरकार कैसी होती है उसका उच्च मापदंड नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद से सड़क तक स्थापित किया है. यहाँ एक बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि केवल प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कांफ्रेस न करना संवाद का मानक नहीं बिल्कुल नहीं हो सकता है. हमारे यहाँ बहस का सर्वोच्च स्थान संसद है.  यहाँ सरकार ने विपक्ष के हर सवाल का जवाब प्रभावी तरीके से दिया है. हर ज्वलंत मुद्दों पर खुलकर अपना पक्ष रखा है. यह कहने के पीछे कई वजहें हैं जिसपर विस्तार से जाना-समझा जा सकता है किन्तु कुछ बातों का जिक्र इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है ताकि यह साबित हो सके  कि सरकार कभी भी किसी मुद्दे पर बहस से पीछे नहीं हटती है. बल्कि विपक्ष द्वारा उठाए गए सभी मुद्दों पर चर्चा के लिए आगे आई है. राफेल का मुद्दा हो अथवा किसानों का विषय हो या महामारी कोरोना पर की गई चर्चा हो इसका सार यही निकल कर आया है  कि सरकार ने सभी सवालों को गंभीरतापूर्वक लिया है और उसका प्रमाणिक जवाब सदन में रखा है. यह भी देखना दिलचस्प होता है कि जब सवाल पूछने वाले लोग खुद घिर जाते हैं फिर उनके पास होहल्ला के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं बचता है. संसद में माननीयों का गिरता आचरण देश के लिए चिंता का विषय है. आखिर हम बहुदलीय लोकतंत्र की कौन सी तस्वीर देश-दुनिया के समक्ष रख रहे हैं. हैरानी इस बात की है कि सांसदों आचरण  दिनोंदिन बेहद असभ्य और अमर्यादित होता जा रहा है. बहुत दिन नहीं बीते कृषि कानून पारित होते समय किस तरह से कुछ सांसद हिंसक और उपद्रवी होकर उपसभापति को भयभीत करने की कोशिश की थी, मार्शल के साथ भी दुर्व्यवहार किया था. वह अलोकतांत्रिक दृश्य अभी जेहन से उतरा भी नहीं था कि केन्द्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव  के हाथों से कागज छीन कर तृणमूल के सांसद ने फेक दिया. इस घटना को बंगाल में  ‘खेला होबे’ के दिल्ली संस्करण के रूप में देखा जाना चाहिए. यहाँ ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जिस तथाकथित पेगासस जासूसी को लेकर विपक्ष ड्रामा कर रहा है उसी मुद्दे पर मंत्री जवाब दे रहे थे. संसद में हंगामे करने वाले दलों से पूछा जाना चाहिए कि क्या हंगामा व अशोभनीय कृत्य करने से उनके विषय सुलझ सकते हैं ? जाहिर है कि चर्चा से ही निवारणं निकलता है हठधार्मिता से नहीं.  विपक्षी दलों ने जो रूख अख्तियार किया है उसे हठधार्मिता ही कहा जायेगा. अगर सवाल उठाया गया है तो यह आवश्यक है कि उसका जवाब भी धैर्यपूर्वक सुना जाए, लेकिन इस तरह व्यवधान खड़ा करके संसद की कार्यप्रणाली को ठप्प कर देना किसी भी सूरतेहाल में वाजिब नहीं है. जब सरकार शुरू से सभी बिंदुओं पर चर्चा के लिए तैयार है फिर इस तरह का अतिवादी व्यवहार समझ से परे है. मुख्यरूप से देखें तो संसद में हंगामा करने के पीछे कोई ठोस वजह है तो इसके चार कारण मैं देखता हूँ. पहला, पब्लिसिटी पाने के लिए, दूसरा खोखली वैचारिक दृष्टि, तीसरा लोकतंत्र की गरिमा का भान नहीं, चौथा सदन के कार्यों से भलीभांति परिचित नहीं. पहले कारण को देखें तो जब भी संसद में हंगामा होता है राष्ट्रीय टेलीविजन पर इसका लाइव प्रसारण होता है, ऐसे में सांसद यह मुगालता पाल लेते हैं कि उनकी इस हरकत को जनता उनके सक्रिय गतिविधियों में दर्ज करेगी दुर्भाग्य से यह धारणा पिछले कुछ सालों से बलवती होती जा रही है. दुसरे कारण पर जाएँ तो हंगामा करने वालों की सूचि में अक्सर वह लोग दिख रहे हैं जो विचारशून्य हैं, उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि कोई खास नहीं है. इसलिए वह संसद की गरिमा को तार-तार करने को अपनी बड़ी उपलब्धी के तौर पर देख रहे हैं. समृद्ध लोकतांत्रित परंपरा का भान न होना भी इसका प्रमुख कारण है. विद्रूप आचरण कर रहे सांसदों को यह एक बार सोचना चाहिए कि वह इस महान सदन में क्यों हैं और उनकी उपयोगिता क्या केवल हंगामे तक सीमित है. देश के विकास और स्वस्थ लोकतंत्र की तस्वीर प्रस्तुत करने लिए यह जरूरी है कि उन मुद्दों पर चर्चा हो जो आम जनजीवन से जुड़े हुए हैं.

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