यह देश का दुर्भाग्य है कि संसद हंगामे का सबसे उपयुक्त अड्डा बन गया है. यह बात हैरान करती है कि सत्र की शुरुआत होने से पहले सभी पार्टियों की एक औपचारिक बैठक होती है, जिसमें यह भाव निकलकर आता है कि संभवतः इसबार का सत्र पहले की अपेक्षा अधिक कामकाजी हो, स्वाभविक है कि उस बैठक का मूल आपसी समंजस्य बैठना ही होता है. किन्तु सदन में जो नजर आता है उससे यही प्रतीत होता है कि यह बैठक अब महत्वहीन हो चुकी है. लोकसभा हो अथवा राज्यसभा देश की जनता इस आस में रहती कि संसद में उनसे जुड़े महत्वपूर्ण विषय पर उनके जनप्रितिनिधि चर्चा करेंगे और उनकी समस्याओं के निराकरण की दिशा में ठोस प्रयास करेगे. परन्तु हमारे हुक्मरान हरबार इस आस पर पानी फेरते हुए दिखाई देते हैं. अब तो ऐसा लगने लगा है मानों हमारे जनप्रतिनिधियों में चर्चा की बजाय हंगामा करने में दिलचस्पी ज्यादा हो गई है. मानसून सत्र में अभीतक जो दृश्य देखने को मिल रहा है वह स्पष्ट संकेत दे रहा है कि विपक्षी दल यह ठान कर आए हैं कि सदन नहीं चलने देंगे. यह दृश्य देखकर आम जनता के मन में क्या विचार आ रहा होगा ? देश इनसे क्या उम्मीद करे ? इस गतिरोध से क्या हासिल होने वाला है ? यह सवाल सबके मन में कौंध रहा है. यह एक प्रमाणिक सत्य है कि जिस भी मुद्दे पर कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने सरकार को घेरने का प्रयास किया है. सरकार के तर्कपूर्ण जवाबों के आगे उनके झूठ और संशय खड़े करने वाली मानसिकता औंधे मुंह गिरी है. गौरतलब है कि संवादप्रिय सरकार कैसी होती है उसका उच्च मापदंड नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद से सड़क तक स्थापित किया है. यहाँ एक बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि केवल प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कांफ्रेस न करना संवाद का मानक नहीं बिल्कुल नहीं हो सकता है. हमारे यहाँ बहस का सर्वोच्च स्थान संसद है. यहाँ सरकार ने विपक्ष के हर सवाल का जवाब प्रभावी तरीके से दिया है. हर ज्वलंत मुद्दों पर खुलकर अपना पक्ष रखा है. यह कहने के पीछे कई वजहें हैं जिसपर विस्तार से जाना-समझा जा सकता है किन्तु कुछ बातों का जिक्र इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है ताकि यह साबित हो सके कि सरकार कभी भी किसी मुद्दे पर बहस से पीछे नहीं हटती है. बल्कि विपक्ष द्वारा उठाए गए सभी मुद्दों पर चर्चा के लिए आगे आई है. राफेल का मुद्दा हो अथवा किसानों का विषय हो या महामारी कोरोना पर की गई चर्चा हो इसका सार यही निकल कर आया है कि सरकार ने सभी सवालों को गंभीरतापूर्वक लिया है और उसका प्रमाणिक जवाब सदन में रखा है. यह भी देखना दिलचस्प होता है कि जब सवाल पूछने वाले लोग खुद घिर जाते हैं फिर उनके पास होहल्ला के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं बचता है. संसद में माननीयों का गिरता आचरण देश के लिए चिंता का विषय है. आखिर हम बहुदलीय लोकतंत्र की कौन सी तस्वीर देश-दुनिया के समक्ष रख रहे हैं. हैरानी इस बात की है कि सांसदों आचरण दिनोंदिन बेहद असभ्य और अमर्यादित होता जा रहा है. बहुत दिन नहीं बीते कृषि कानून पारित होते समय किस तरह से कुछ सांसद हिंसक और उपद्रवी होकर उपसभापति को भयभीत करने की कोशिश की थी, मार्शल के साथ भी दुर्व्यवहार किया था. वह अलोकतांत्रिक दृश्य अभी जेहन से उतरा भी नहीं था कि केन्द्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव के हाथों से कागज छीन कर तृणमूल के सांसद ने फेक दिया. इस घटना को बंगाल में ‘खेला होबे’ के दिल्ली संस्करण के रूप में देखा जाना चाहिए. यहाँ ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जिस तथाकथित पेगासस जासूसी को लेकर विपक्ष ड्रामा कर रहा है उसी मुद्दे पर मंत्री जवाब दे रहे थे. संसद में हंगामे करने वाले दलों से पूछा जाना चाहिए कि क्या हंगामा व अशोभनीय कृत्य करने से उनके विषय सुलझ सकते हैं ? जाहिर है कि चर्चा से ही निवारणं निकलता है हठधार्मिता से नहीं. विपक्षी दलों ने जो रूख अख्तियार किया है उसे हठधार्मिता ही कहा जायेगा. अगर सवाल उठाया गया है तो यह आवश्यक है कि उसका जवाब भी धैर्यपूर्वक सुना जाए, लेकिन इस तरह व्यवधान खड़ा करके संसद की कार्यप्रणाली को ठप्प कर देना किसी भी सूरतेहाल में वाजिब नहीं है. जब सरकार शुरू से सभी बिंदुओं पर चर्चा के लिए तैयार है फिर इस तरह का अतिवादी व्यवहार समझ से परे है. मुख्यरूप से देखें तो संसद में हंगामा करने के पीछे कोई ठोस वजह है तो इसके चार कारण मैं देखता हूँ. पहला, पब्लिसिटी पाने के लिए, दूसरा खोखली वैचारिक दृष्टि, तीसरा लोकतंत्र की गरिमा का भान नहीं, चौथा सदन के कार्यों से भलीभांति परिचित नहीं. पहले कारण को देखें तो जब भी संसद में हंगामा होता है राष्ट्रीय टेलीविजन पर इसका लाइव प्रसारण होता है, ऐसे में सांसद यह मुगालता पाल लेते हैं कि उनकी इस हरकत को जनता उनके सक्रिय गतिविधियों में दर्ज करेगी दुर्भाग्य से यह धारणा पिछले कुछ सालों से बलवती होती जा रही है. दुसरे कारण पर जाएँ तो हंगामा करने वालों की सूचि में अक्सर वह लोग दिख रहे हैं जो विचारशून्य हैं, उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि कोई खास नहीं है. इसलिए वह संसद की गरिमा को तार-तार करने को अपनी बड़ी उपलब्धी के तौर पर देख रहे हैं. समृद्ध लोकतांत्रित परंपरा का भान न होना भी इसका प्रमुख कारण है. विद्रूप आचरण कर रहे सांसदों को यह एक बार सोचना चाहिए कि वह इस महान सदन में क्यों हैं और उनकी उपयोगिता क्या केवल हंगामे तक सीमित है. देश के विकास और स्वस्थ लोकतंत्र की तस्वीर प्रस्तुत करने लिए यह जरूरी है कि उन मुद्दों पर चर्चा हो जो आम जनजीवन से जुड़े हुए हैं.
आदर्श तिवारी
नरेंद्र मोदी सरकार सदैव अपने नवाचारों से सबको चकित करती रहती है. ध्यान देने वाली बात यह है कि यह नवाचार उन क्षेत्रों में होता है जो सामान्य रूप से हमसे जुड़े होते हैं परन्तु दुर्भाग्य से प्राथमिकता की दृष्टि से नेपथ्य में खड़े मिलते हैं. यह सुखद है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने बहुत व्यवस्थित तरीके से ऐसे क्षेत्रों को प्राथमिकता में लाया है जो देश की आम जनता को लाभान्वित करने वाला है. अभी कुछ दिनों पूर्व मंत्रिमंडल विस्तार से ठीक पहले केंद्र सरकार ने सहकार से समृद्धि के मूलमंत्र के साथ सहकारिता मंत्रालय का गठन किया है. जैसे ही इस मंत्रालय का नाम सामने आया हर कोई चौक गया, ठीक वैसे ही जब केंद्र सरकार ने जल शक्ति मंत्रालय का गठन का किया था. देश में सहकारी समितियों की स्थिति क्या है यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है. सहीं मायने में कुछ पहलुओं को छोड़ दें तो सहकारिता का सहकार अब प्रभावहीन हो गया है, लोग इसे अविश्वसनीयता की दृष्टि से देखने लगे हैं. सहकारी बैंक कृषि विकास के मानचित्र से लुप्त से हो गए हैं. कुलमिलाकर अवसरों की असीम सीमाओं के बावजूद सहकारी संस्थानों को लेकर आम जनता के मन में एक संशय की भावना खड़ी हो गई है. इन्हीं सब बारीकियों को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने यह कारगर प्रयास किया है. इस मंत्रालय के कामकाज के दृष्टिगत सरकार की तरफ से कहा गया है कि यह मंत्रालय सहकारिता आंदोलन को मजबूत करने के लिए प्रशासनिक, क़ानूनी और नीतिगत ढ़ांचा प्रदान करने का काम करेगा. गौरतलब है कि इन तीन बिंदुओं पर अगर सरकार तेज़ गति से काम करती है तो सहकारिता आंदोलन को नई दिशा प्राप्त होगी. इसका भरोसा इसलिए भी अधिक हो जाता है कि क्योंकि नरेंद्र मोदी ने कठोर परिश्रम कर तय समय में अपने लक्ष्य को साधने वाले नेता अमित शाह को यह जिम्मेदारी दी है. इसमें संशय नहीं कि प्रबंधन का दंश झेल रहे सहकारिता विभाग को नए नीति- नियंता की आवश्यकता थी, जो जर्जर अवस्था में पड़े सहकारिता क्षेत्र को पुनर्स्थापित कर सके. यह दुष्कर कार्य वही व्यक्ति कर सकता जिसका इस क्षेत्र में व्यापकअनुभव रहा हो. अमित शाह को जब यह मंत्रालय दिया गया तो तरह-तरह की बातें और सवाल भी उठने लगे थे. स्वभाविक है कि ऐसे सवालों को तर्कपूर्ण जवाब तर्क व तथ्य को समझने वाले लोगों को ही दिया जा सकता है, लेकिन ऐसे लोगों को जवाब देना उचित नहीं है, जो एक विचार परिवार से घृणा के वास्ते विषय वस्तु को समझे बगैर आलोचना के लिए लालायित रहते हैं. ये वही लोग हैं जो सहकारिता के नाम पर वर्षों से लूट-खसोट मचाए हुए हैं. वास्तव में अनुच्छेद 370 और नागरिकता संशोधन कानून के बाद से तथाकथित बुद्दिजीवियों के निशाने पर सबसे पहले शाह ही हैं. उसकी बानगी भी हमें समय-समय पर देखने को मिलती रहती है. देश के अधिकतर लोग अमित शाह के राजनीतिक प्रबंधन का लोहा मनाते हैं, परन्तु उनके कार्यक्षमता की विवधता से बहुत लोग परिचित नहीं हैं. जानना दिलचस्प है कि दो दशक पहले अमित शाह सहकारी संस्थानों की चुनौतियों से लोहा लेते हुए सफलता का झंडा बुलंद कर चुके हैं. सहकारिता मंत्रालय के लिए शाह उपयुक्त इसलिए भी हैं क्योंकि वह इस क्षेत्र की बारीकियों से पूरी तरह वाफिफ हैं. अब सवाल यह उठता है कि शाह ने ऐसा क्या करिश्मा किया है कि उन पर भरोसा किया जाए. गौरतलब है कि अमित शाह मात्र 36 वर्ष की उम्र में अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष बनें. यहाँ शाह के लिए चुनौतियों का बड़ा पहाड़ था एक तरफ जहाँ अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक 20 करोड़ से अधिक के घाटे में चल रहा था, तो वहीँ जमाकर्ताओं का लाभांश भी वर्षों से नहीं दिया जा रहा था. स्वभाविक है जब बैंक घाटे में है तो जमाकर्ताओं को उसका लाभ कैसे मिल सकता है. बैंक की सभी स्थिति को जानने के उपरांत शाह यह समझ चुके थे कि बड़े परिवर्तन करने की बाद ही स्थिति को सुधारा जा सकता है. अत: अमित शाह ने अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक के पुनरूद्धार का प्रस्ताव रखा था. उनके व्यक्तिगत वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार इस प्रस्ताव का सार्वजनिक उपहास किया गया . परन्तु शाह विचलित हुए बगैर अपने निश्चय और संकल्प पर अडिग रहे, जिसके परिणामस्वरूप एक साल के अंदर इस बैंक का कायाकल्प ही बदल गया. अपनी कुशल कार्यक्षमता से बैंक को नुकसान से बाहर निकालते हुए शाह ने इसे छह करोड़ से अधिक के लाभ पर पहुँचाया इसके साथ जमाकर्ताओं को लाभांश का वितरण करके सहकारिता को लेकर डगमगाए उनके भरोसे को भी पुनरस्थापित किया. बतौरअध्यक्ष अमित शाह ने यहाँ बहुत से नवाचारों के बल पर सलफता का कीर्तिमान स्थापित किया. शाह के ही कार्यकाल में बैंक ने अपने कार्य क्षेत्र का विस्तार करते हुए सरकारी सुरक्षा निधि को क्रेडिट केतहत बैंक ने 262 फीसदी काअभूतपूर्व लाभ अर्जित किया. शाह के इन सब अथक प्रयासों की बदौलत अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक समूचे गुजरात में शीर्ष स्थान पर काबिज हो गया. सहकारिता के क्षेत्र में अमित शाह ने कई उल्लेखनीय कार्य करने के साथ कई ऐसे प्रभावी निर्णय लिए जो किसानों और मजदूरों के हित में थे. जैसे किसानों और खेतिहर मजदूरों की पीड़ा को समझते हुए शाह ने इनको मिलने वाली बीमा सुरक्षा की रकम में पांच गुना कीअप्रत्याशित बढोत्तरी की.
माधेपुरा बैंक के पुनरुद्धार का प्रण-
राष्ट्रीय राजनीति में जब अमित शाह सक्रिय हुए तब उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति से लोग वाकिफ नहीं थे आज भी राजनीति के इतर उनके अन्य क्रियाकलापों और अभूतपूर्व कार्यों का मूल्यांकन ठीक से नहीं होता है. यह ऐसी घटना है जिसको लेकर आप इस बात को स्वीकार करने के लिए मजबूत हो जाएंगे कि शाह शुरू से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए खुद को खपाने वाले व्यक्ति हैं. हुआ यूँ कि उनके इस कार्यकाल के दौरान ही गुजरात के माधेपुरा बैंक बंद होने से तीन लाख खाताधारकों सहित सहकारी बैंको के आठ सौ करोड़ रूपये डूबने की पूरी संभावना थी. इस घटना से गुजरात के सहकारी बैंको के आस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा था. जिनके पैसे डूब रहे थे वह पूरी तरह निराश हो चुके थे. यहाँ तक कि अमित शाह के विधानसभा क्षेत्र सरखेज के एक व्यक्ति ने मौत को चुन लिया था. इस घटना से अमित शाह को बहुत दुःख पहुंचा. संवेदनशील व्यक्तित्व के अमित शाह ने प्रण लिया कि जबतक माधेपुरा बैंक का पुनरूद्धार नहीं हो जाता तबतक ढाढ़ी ट्रिम नहीं कराऊंगा. यह संकल्प केवल एक बैंक को बचाने का नहीं था, बल्कि यह संकल्प गुजरात में सहकारिता आंदोलन को बचाने का था, निराशा के घोर अँधेरे में डूबे लोगों को रौशनी प्रदान करने का संकल्प था. इसके लिए शाह सभी संभावनाओं को टटोलने लगे. राज्य में सहकारिता क्षेत्र में प्रमुख लोगों से बात करना हो अथवा राष्ट्रीय स्तर के वित्तीय संस्थानों से संवाद करना हो, अमित शाह ने इसके लिए अथक प्रयास किए. आख़िरकार शाह का परिश्रम सार्थक सिद्ध हुआ. उनकी कुशल नीतियों व कार्य योजना के कारण बदहाल की कगार पर खड़े माधेपुरा बैंक को संजीवनी मिल गई. अमित शाह की निपुणता और प्रबंधन के कारण माधेपुरा बैंक का पुनरुद्धार तो हुआ ही इसके साथ डिपाजिट इंश्योरेंस योजना के द्वारा 400 करोड़ रूपये खाताधारकों और डिपोजिटर्स को वापस दिलाये.उनकी इस सफलता की गूंज राष्ट्रीय स्तर पर भी सुनाई पड़ी. भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें अपने सहकारिता प्रकोष्ट का राष्ट्रीय संयोजक का दायित्व प्रदान किया. यहीं पर उन्हें सहकारिता आंदोलन के पितामह की उपाधि मिली. यह अपनेआप सहकारिता के क्षेत्र में अमित शाह की कार्य क्षमता की कहानी को बयाँ कर रहे हैं. इन सभी तथ्यों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में सहकारिता मंत्रालय देश में सुस्त पड़े सहकारिता संस्थानों को नई गति प्रदान होगी.
आदर्श तिवारी
देश के लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को 25 जून की तारीख याद रखनी चाहिए. क्योंकि यह वह दिन है जब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बंदी बना लिया गया था. आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास सबसे काला अध्याय है, जिसके दाग से कांग्रेस कभी मुक्त नहीं हो सकती. इंदिरा गांधी ने समूचे देश को जेल खाने में तब्दील कर दिया था. लोकतंत्र के लिए उठाने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचल दिया जा रहा था, सरकारी तंत्र पूरी तरह राजा के इशारे पर काम कर रहा था. जब राजा शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ तो स्वभाविक है कि इंदिरा गांधी पूरी तरह लोकतंत्र को राजतंत्र के चाबुक से ही संचालित कर रही थीं. गौरतलब है कि इंदिरा गांधी किसी भी तरीके से सत्ता में बने रहना चाहती थी. इसके लिए वह कोई कीमत अदा करने को तैयार थीं किन्तु इसके लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर इतना बड़ा आघात होने वाला है शायद इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी. देश में इंदिरा गाँधी की नीतियों के खिलाफ भारी जनाक्रोश था और जयप्रकाश नारायण जनता की आवाज बन चुके थे. जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ रहा था इंदिरा सरकार के उपर खतरे के बादल मंडराने लगे थे. हर रोज हो रहे प्रदर्शन सत्ता को खुली चुनौती दे रहे थे, कांग्रेस के खिलाफ विरोध की उठी हवा बहुत जल्द आंधी में तब्दील हो चुके थे. इसी बीच इलाहाबाद न्यायालय का आया फैसला इंदिरा गाँधी और कांग्रेस के लिए शामत बनकर आया. इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा को चुनाव धांधली के आरोप में अयोग्य करार दे दिया. सुप्रीमकोर्ट से भी कांग्रेस को बहुत राहत नहीं मिली. कांग्रेस के सामने एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई की स्थिति थी. इसका एक मात्र हल था इंदिरा गांधी को त्याग पत्र दे कर अदालत और जनभावनाओं का सम्मान करना. दुर्भाग्य से सिद्धार्थ शंकर रे और संजय गांधी की सलाह पर इंदिरा ने तीसरा राश्ता चुना जो तानशाही का प्रतीक बनकर इतिहास में दर्ज हो गया. एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस ने सुप्रीमकोर्ट हो अथवा इलाहबाद हाईकोर्ट दोनों जजों के निर्णय को प्रभावित करने की पूरी कोशिश की, सीधे शब्दों में कहें तो जजों को झुकाने, खरीदने के सभी पैतरों को आजमाया गया. आपातकाल का दंश झेलने वाले देश के वरिष्ठ पत्रकार रहे दिवंगत कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा एक जिन्दगी काफी नहीं में इसका विस्तृत जिक्र किया है. श्री नैयर लिखते हैं कि “इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के कई महीने बाद मैं जस्टिस सिन्हा से भी इलाहाबाद में उनके घर पर मिला था. उन्होंने मुझे बताया था कि एक कांग्रेस सांसद ने इंदिरा गांधी के पक्ष में फैसला सुनाने के लिए उन्हें रिश्वत देने की कोशिश की थी.” श्री नैयर इसका विस्तृत जिक्र करतें हैं, जिसमें जज को प्रलोभन के साथ, साधू-संतो का इस्तेमाल किया गया क्योंकि जस्टिस सिन्हा आध्यात्मिक प्रवृति के थे. यह सब पैतरें इस बात के स्पष्ट संकेत देते है कि इंदिरा और कांग्रेस इस दंभ में थे कि लोकतंत्र उनके कब्जे में है परन्तु शायद वह भूल गए थे कि ‘तंत्र’ उनके कब्जे में हो सकता है ‘लोक’ उनके कुशासन के खिलाफ पहले ही बिगुल फूंक चुका थे. बहरहाल, देश के सभी बड़े नेता जेल की कोठरी में बंद थे. कुछ नेता भूमिगत होकर आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे. लोकतंत्र के सभी स्तंभों खासकर मीडिया पर पूरी तरह संजय गांधी का पहरा था, विद्या चरण शुक्ल जैसे सूचना प्रसारण मंत्री सभी माध्यमों को झुकने को मजबूर कर दिया था. देश कि संकट से बाहर कब आएगा, लोकतंत्र का सूर्य कब उदय होगा ऐसे सवाल यक्ष प्रश्न बनकर रह गए थे. फिर यकायक 21 मार्च 1977 को लोकतंत्र की शक्ति के आगे इंदिरा और कांग्रेस को झुकना पड़ा, किन्तु इन 21 महीनों में निरंकुशता की सारी सीमाओं को लाँघ दिया गया था. लाखों लोग जेलों में बंद रहे. निर्ममता और यातनाओं को झलते हुए कई लोग काल के गाम में समा गए. यह भारत के लोकतंत्र पर सबसे बड़ा आघात था एक ऐसा आघात, जो हमेशा हमारे लोकतंत्र की सुन्दरता को चिढ़ाता रहेगा.आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से पराजित हुई यहाँ तक की इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गईं थी. जनता ने देश के सत्ताधीशों को स्पष्ट सन्देश किया कि अराजकता और अधिनायकवाद को वह सहन करने वाली नहीं हैं. लोकतंत्र को पुनरस्थापित करने की लड़ाई सबने अपने स्तर लड़ी किन्तु इंदिरा गांधी के इस अनैतिक, असंवैधानिक कदम को वामपंथी दल एवं उस विचार के बुद्दिजीवियों ने क्रांतिकारी कदम बताकर इसका समर्थन किया था. आज उसी जमात के लोग गत सात वर्षों से अघोषित आपातकाल का अनावश्यक झंडा बुलंद कर रहे हैं. यह बेहद हास्यास्पद है जब देश की सभी संस्थाएं स्वतंत्रता के साथ काम कर रही हैं. तब इस कपोल कल्पना का मकसद क्या है ? इसके पीछे पूर्वाग्रह के बाद कोई ठोस कारण भी दिखाई नहीं पड़ता. बल्कि उनके ऐसे विचार अकसर उनकी ही फज़ीहत करातें हैं. उदाहरण के लिए अभी हाल के दो निर्णय के केंद्र में इसकी विवेचना को समझना चाहिए. जब न्यायालय ने वैक्सीन नीति को लेकर सरकार से तीखे सवाल किए तब अघोषित आपतकाल वालों को यकायक सब कुछ दुरुस्त लगने लगा था, वहीँ जब सेट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को कोर्ट ने हरी झंडी दिखाई तब इन्हें लोकतंत्र से भरोसा उठने लगा. ऐसे सैकड़ो उदाहरण आज हमारे सामने मौजूद है जब एक विशेष तथाकथित बौद्धिक वर्ग द्वारा आपातकाल जैसा हौवा खड़े करने की कोशिश की जाती है जिसका मकसद केवल वर्तमान सरकार को बदमान करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि भारत का लोकतंत्र समयानुकूल इतना परिपक्व नजर आता है कि अब कोई शासक ऐसे कदम उठाने की सोच भी नहीं सकता. फिलहाल तो वह विचारधारा शासन पर काबिज है जो आपातकाल के लिए संघर्ष किया. प्रधानमंत्री स्वंय आपातकाल के आंदोलन में प्रमुख भूमिका में थे.
देश में इस समय सोशल मीडिया को लेकर उठा कोलाहल शांत होने का नाम नहीं ले रहा है जब भी मामला शांत होने की कगार पर आता ट्विटर की बदमाशी इसे और बढ़ा देती. सभी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की बात करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हो रही है क्योंकि ट्विटर ही सभी प्लेटफार्मों का सरदार बनने की कोशिश में लगा हुआ है. ट्विटर ने पिछले एक पखवारे से जो अकड़ व अहंकार दिखाया है उससे तो यही लगता है कि ट्विटर ने एक अलग गणराज्य की स्थापना कर लिया है और इस मुगालते में जी रहा है कि उस गणराज्य द्वारा जारी फरमान के मुताबिक़ ही सभी देश चलें अथवा उसे ही सर्वोपरी रखा जाए. भारत सरकार के नए आईटी नियमों को मनाने को लेकर जिस तरह से विवाद हुआ उससे स्पष्ट हो गया कि सोशल साइट्स कम्पनियां अपने आप को अत्याधिक शक्तिशाली मानने लगी हैं. इनके लिए किसी देश भी के संविधान, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति की गरिमा से खेलना आम हो गया है. भारत में ट्विटर का पूर्वाग्रह किसी से छुपा नहीं है उससे कहीं अधिक ट्विटर भी यह बताने की उत्सुकता दिखा रहा है कि उसकी विचारधारा क्या है. ट्विटर पर कई अधिकृत ब्लू टिक वाले अकाउंट होंगे जो सक्रिय नहीं होंगे उन सबको भूल ट्विटर ने सबसे पहले उपराष्ट्रपति के अकाउंट से ब्लू टिक वापस ले लिया उसके बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत समेत बड़े नेताओं के ब्लू टिक ट्विटर ने वापस ले लिए. इसके पीछे ट्विटर का तर्क यह था कि यह अकाउंट सक्रिय नहीं थे. ट्विटर का यह तर्क हास्यास्पद तो लगता ही है इसके साथ ही उसके भेदभाव वाली नीति को भी उजागर करता है. क्योंकि जैसे ही ट्विटर का यह तर्क आया सैकड़ो ब्लू टिक अकाउंट लोगों ने खंगाल के ट्विटर के सामने रख दिए, जो वर्षों से सक्रिय नहीं हैं फिर भी उनका ब्लू टिक बरकरार है. सरकार की कड़ी प्रतिक्रिया और लोगों के विरोध के बाद आख़िरकार ट्विटर ने पहले उपराष्ट्रपति फिर आरएसएस के पदाधिकारियों के ब्लू टिक को बहाल कर किया है. इस पुरे घटनाक्रम को देखें तो ऐसा लगता है ट्विटर यह दिखाना चाहता था कि वह नए नियम मानने की खीझ उतार रहा है अथवा उसकी नीयत बदला लेने की है. ट्विटर इन गतिविधियों के द्वारा वामपंथी गिरोह के अपने समर्थकों को यह बताना चाहता था कि वह समर्थन में अपनी आवाज बुलंद करें ट्विटर हर तरह से उनके साथ है, लेकिन इस मामले में आम उपयोगकर्ता से लेकर सरकार की ऐसी तीखी प्रतिक्रिया ट्विटर को मिली जिससे उसे अपने पाँव पीछे खींचने पड़े व जगहंसाई अलग से हुई. गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच, बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच. अर्थात किसी भी प्रकार से कोई सींच लें किन्तु केला काटने पर ही फल देता है और नीच विनय से नहीं मानता, वह डांटने पर ही झुकता है. ट्विटर की स्थिति फिलहाल ऐसी ही है. बहरहाल, ट्विटर को लेकर भारत में मतभेद की स्थिति है, दिलचस्प यह है कि समय-समय पर ट्विटर की कारस्तानियों से उसके वैचारिक पूर्वाग्रह के नतीजे सामने आते रहते हैं. एक दो मामले का जिक्र करना समीचीन लगता है. कुछ महीने पहले ट्विटर ने जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के दफ्तर का ट्विटर अकाउंट अकारण ही बंद कर दिया था. इसको लेकर बड़ा विवाद हुआ था. ऐसे ही भारत की संप्रभुता से खिलवाड़ करते हुए ट्विटर ने लद्दाख के कुछ भाग को चीन का दिखा दिया था. कांग्रेस टूलकीट मामले में तो ट्विटर ने जज बनकर फैसला ही सुना दिया कि भाजपा नेताओं द्वारा ट्विट की गई सामग्री को मैन्युपलेटेड मीडिया है. एक समय के लिए हम मान लेते हैं कि वह मैन्युपलेटेड था, लेकिन ट्विटर अपने इस कथित पड़ताल की प्रक्रिया उपयोगकर्ताओं के समक्ष क्यों नहीं रख रहा है ? आज सोशल मीडिया पर हर रोज सैकड़ो ट्वीट दिख जाएंगे जिसमें तथ्य और आंकड़ो से हेरफेर हुआ रहता है. आखिर किसी चुनिन्दा ट्वीट पर ही ट्विटर की नजर क्यों जाती है ? ट्विटर को यह स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर उसका मानक क्या है ? ऐसे ही ट्विटर की मनमानी अकाउंट बंद करने को लेकर भी दिख जाती है. ट्विटर के इस रवैये पर अकबर इलाहाबादी का एक शेर याद आता है- हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता. ट्विटर किस ट्विट को भड़काऊ मानता है उसका आधार क्या होता है. यह पूरी तरह संदिग्ध दिखाई पड़ता है. इस समय एक बात सबके समझ में आ गई है वह है ट्विटर के पास घनघोर अपारदर्शिता है. वह अपनी मर्जी के आधार पर बेलगाम घोड़े की भाँती चलना चाहता है. नए आईटी नियम सोशल मीडिया के मनमानेपन पर रोक तो लगायेंगे ही इसके साथ ही उपयोगकर्ताओं को अधिक शक्तिशाली बनायेंगे. नियमों को लेकर अनाकनी करने वाले सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को ध्यान रखना चाहिए कि उनका काम सरकार से लड़ना-भिड़ना नहीं बल्कि किसी भी देश के संविधान के अनुसार उस देश के मानकों की गरिमा का ख्याल रखते हुए अपने व्यापार को आगे बढ़ाना और अपने उपयोगकर्ताओं के प्रति जवाबदेह बनना है. किन्तु ये कम्पनियां पारदर्शिता से भी परहेज कर रही हैं और जवाबदेही से भी बचना चाहती हैं, जिससे इनकी मानसिकता पर गंभीर प्रश्नचिंह खड़े होते है. विश्व को कई देशों को इसका भान हो गया है कि सोशल मीडिया साइट्स को अगर खुला मैदान दिया गया अथवा उनकी शातिराना शरारत की अनदेखी की गई तो वह किसी भी राष्ट्र की गरिमा, संप्रभुता पर सीधा हमला करने से पीछे नहीं हटने वाले. इसलिए विश्व के कई देश सोशल मीडिया के संचालन के लिए नियम कानून बना रहे हैं अथवा बना चुके हैं. इसी बीच ट्विटर की मनमौजीपन पर नाइजीरिया ने जो उदाहरण विश्व के सामने रखा है वह यह बताता है कि इन कम्पनियों की अकड़ को कैसे सीधा किया जा सकता है अथवा इनको अपने दायरा का भान कैसे कराया जा सकता है. दरअसल नाइजीरिया के राष्ट्रपति ने एक ट्वीट को ट्विटर ने कुछ समय के लिए हटा दिया. उसका परिणाम यह हुआ कि वहाँ की सरकार ने ट्विटर पर अनिश्चितकाल के लिए प्रतिबन्ध लगा दिया है. भारत में ट्विटर की उससे भी बड़ी शरारतपूर्ण हरकत पर सरकार अभी भी नोटिस और अंतिम नोटिस देकर धैर्य का परिचय दे रही है. ट्विटर को यह भान होना चाहिए कि उनकी हरकतों से सरकार का धैर्य कभी भी जवाब दे सकता है इस स्थिति में उनका क्या नफा-नुकसान है.
देश में सोशल मीडिया को लेकर केंद्र सरकार द्वारा लाए गए नए आईटी नियमों पर बहस छिड़ी हुई है. हालाँकि तमाम विरोध व आनाकानी के पश्चात सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म फरवरी में लाए गए नियम को मनाने के लिए राजी हो गए हैं. इस बहस के दो मुख्य तर्क निकल कर सामने आ रहे हैं. पहला, नए नियम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बाधक होंगे और दूसरा, यह नियम सोशल मीडिया को अधिक पारदर्शी और जिम्मेदार बनायेंगे. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात करें तो यह भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार है. सोशल मीडिया के आने से निश्चित तौर पर इसको अधिक बल मिला है किन्तु समय के साथ इसका दुरुपयोग भी बढ़ता चला जा रहा था. तथ्यों के धरातल पर भी हमें इसका मुल्यांकन करना चाहिए. आखिर क्या कारण है कि सरकार को ऐसे नियम लाने पड़े? फरवरी में आए इस नियम को समझें तो स्पष्ट पता चलता है कि बेलगाम घोड़े की भांति दौड़ते सोशल मीडिया पर एक आवश्यक अंकुश लगाना जरूरी था. यह समय की आवश्कयता भी थी. हम देखें तो आज फेक न्यूज़ और फर्जी आंकड़े,भड़काऊ सामग्री सबसे ज्यादा प्रचारित-प्रसारित इन्ही माध्यम से हो रहे हैं. गौरतलब है कि नए नियम में शिकायत व निवारण तंत्र को स्थापित करने की भी बात कही गई है, जिसमें उपयोगकर्ता की शिकायत मिलने पर 24 घंटे के अंदर उसे दर्ज करना होगा तथा 15 दिन के अंदर शिकायत पर कार्यवाही भी करनी होगी तथा आपत्तिजनक सामग्री को एक समयसीमा के अंदर हटाने के भी निर्देश दिए गए हैं. नए नियम में सोशल मीडिया पर सबसे पहले भड़काऊ सामग्री किसके द्वारा प्रेषित की गई इसकी पहचान करने की बात कही गई है. भारत के मौजूदा हालात पर गौर करें यह नियम बहुत पहले बन जाना चाहिए था क्योंकि आज सोशल मीडिया पर बहुतेरे भड़काऊ सामग्री मौजूद है जो समाज में वैमनस्यता और घृणा पैदा करने का कारक बन रही है. सरकार द्वारा बार-बार चिंता किए जाने के बाद भी इन कम्पनियों कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई. इस बहस एक प्रमुख बिंदु यह भी होना चाहिए कि ऐसे नियम बनाने वाला भारत पहला देश है ? विश्व के कई देश सोशल मीडिया पर निगरानी और उसकी जवाबदेही तय करने के लिए कानून बनाए हैं तथा इन कम्पनियों ने अपनी सहमति भी जताई है. भारत में ये कम्पनियां अड़ियल रुख क्यों अख्तियार कर रही हैं. क्या वह खुद को भारत के संविधान से बड़ा समझने लगी हैं ? जिस तरह से विवाद गहराता गया उससे तो यही लगता है कि इन कम्पनियों ने यही मुगालता पाल लिया था. बहरहाल, विश्व के अन्य देशों में सोशल मीडिया कैसे रेगुलेट होती हैं हमें इसको भी समझना होगा. जर्मनी में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक और नस्लीय भेदभाव पैदा करने वाले कंटेट के प्रति जवाबदेही तय करने वाला कड़ा कानून 2018 में पारित किया था. इस कानून के अनुसार एक तय समयावधि में आपत्तिजनक कंटेट अपने प्लेटफोर्म से हटाना होगा ऐसा नहीं करने पर 50 मिलियन यूरो का भारी जुर्माना देना होगा. रूस में भीं सोशल मीडिया के रेगुलेशन को नए कानून पारित किए जिसमें आपतकालीन स्थिति में वह वेब से कनेक्शन बंद करने की अनुमति देते हैं. ऑस्ट्रेलिया ने इस विषय की गंभीरता को पहले ही समझ ही था 2015 में ही उसनें एक सुरक्षा आयुक्त बनाया. 2019 में घृणित कंटेट अधिनियम बनाया जिसके तहत सोशल मीडिया कम्पनियों को आपराधिक दंड के साथ वैश्विक कारोबार का 10% तक वित्तीय दंड का लगाया जा सकता है. यूरोपीय संघ के कानून की चर्चा आज सब जगह हो रही है. यूरोपीय संघ ने 2016 में जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन पेश किया जिसके तहत जो कम्पनियां उपयोगकर्ताओं के डेटा को इकट्टा करते हैं उनके लिए नियम तय किए गए. इसमें कॉपीराइट तक जी जिम्मेदारी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को दी गई. आतंकवाद से जुड़े कंटेट को लेकर यूरोपीय यूनियन इतना सख्त है कि एक घंटे के भीतर अगर प्लेटफोर्म कंटेट को नहीं हटाता है तो उसपर कड़ी कार्यवाही का प्रावधान है. इसी तरह अमेरिका में फेडरल कम्यूनिकेशन कमीशन है. यहाँ सोशल मीडिया कम्पनियों की पक्षधरता साफ़ दिखाई देती है. कैपिटल हिल में हुई हिंसा के बाद इन कम्पनियों ने स्वतः फुर्ती दिखाते हुए आपत्तिजनक सोशल मीडिया एकाउंट्स को बंद करने शुरू कर दिए. वहाँ किसी भी विवादित मसले पर इन कम्पनियों के अधिकारी अमेरिकी संसद में पेश हो जाते हैं. न्यायालय के फैसलों पर इनकी जवाबदेही तय हो जाती है. इस तरह विश्व के कई देश अपनी एकता, अखंडता को बनाए रखने के लिए सोशल मीडिया की सीमा तय करके उन्हें जवाबदेह बनाते हैं. आज भारत भी अपनी एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए एक वैधानिक कार्य कर रहा है तो यह कम्पनियां हायतौबा मचा रही है. यही सोशल मीडिया प्लेटफोर्म अमेरिका और यूरोप देशों में आतंकवाद आदि से जुड़ी जानकारी सरकार को बिना देर किए उपलब्ध कराते हैं. वहीँ भारत में यह कम्पनियां निजता का अधिकार की दुहाई देकर अपने दोहरे रवैये को उजागर कर रही हैं. भारत की एकता, अखंडता को खंडित तथा हिंसा की सामग्री का निर्माण करने वालों पर शिकंजा कसा जाता है तो इससे किसको दिक्कत है? हमारे सामने सैकड़ो उदाहरण मौजूद है जब भी कोई अप्रिय घटना होती है तमाम वीडियो और तस्वीर बदनीयत से वायरल की जाती है. दिल्ली के दंगे हो अथवा इसी वर्ष 26 जनवरी को किसानों का उपद्रव इस उपद्रव में सोशल मीडिया ने आग में घी डालने का काम किया था. यह केवल हिंसा तक सीमित नहीं है आज आपको सोशल मीडिया पर सैकड़ो वीडियो दिख जाएंगे हो कोरोना के टीका को लेकर भ्रम की स्थिति खड़ा करने का काम कर रहे हैं. इन सभी बिंदुओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं कि सरकार द्वारा लाए गए नियम सोशल मीडिया को और अधिक सशक्त करने वाले हैं तथा इससे सोशल मीडिया की विश्वसनीयता और पारदर्शिता को भी बल मिलेगा.
देश कोरोना महामारी की चपेट में है. हर तरफ स्थिति चुनौतीपूर्ण बनी हुई है. यह समय सबको साथ मिलकर इस महामारी से मुकाबला करने का है किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में यह संभव होता नहीं दिखाई दे रहा है. इसके पीछे कारण बहुत दिख जाएंगे फ़िलहाल इसका प्रमुख कारण क्षुद्र राजनीति ही दिखाई पड़ रही है. देश में बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात है जो पुरस्कार वापसी, असहिष्णुता, लोकतंत्र खतरे में है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन हो रहा है कि मुनादी 2014 से पीट रहे हैं बस हर बार इनकी मुनादी चिकना घड़ा साबित हुई है. वैसे तो देश ने हर मोर्चे पर इनका दोहरा रवैया देखा है, लेकिन अब इनके क्रूर आचरण से भी देश भलीभांति वाकिफ हो गया है. यह कबीला समय, अवसर अथवा परिस्थिति के अनुसार अपना एजेंडा तय नहीं करते, बल्कि कोई भी समय हो, काल हो, परिस्थिति हो यह अपने एजेंडे पर पूरी तरह दृढ़ता के साथ खड़े रहते है. कोरोना की दूसरी लहर में शुरू से देखें तो राजनीतिक दलों से कहीं ज्यादा यह लोग सक्रिय नजर आ रहे हैं मानों समूचे विपक्ष ने अपना दायित्व इनके कंधो पर डाल दिया है. इन्होनें एक-एक कर नरेंद्र मोदी के खिलाफ नैरेटिव गढ़ने शुरू किए, चक्रव्यूह रचना ऐसी की सरकार के दात खट्टे करके ही मानेंगे. इसमें संशय नहीं है कि परिस्थिति कठिन है केंद्र तथा राज्य सरकारों को दुसरे लहर की और अधिक तैयारी करनी चाहिए. चाइनीज वायरस ने समूचे विश्व की मानवता के सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है. खुद को विकसित और सम्पन्न समझने वाले देश की व्यवस्थाएं की इस चाइनीज वायरस के सामने बौनी पड़ गई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक-एक करके बिन्दुवार तरीके से मानवता को बचाने की इस लड़ाई में देशवासियों का सहयोग मांग रहे हैं और हर पहलुओं को साधने की कोशिश निरंतर कर रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आलोचकों ने इस संकट के दौर में भी राजनीतिक संभावनाओं की जुगत में लग गए हैं. ध्यान दें तो सबसे पहले पश्चिम बंगाल चुनाव में जब इस गिरोह को लगा कि भाजपा का जनाधार बढ़ने लगा है इनके सामने घोर निराशा थी किन्तु कोरोना के आने से मरणासन्न अवस्था में पड़े भाजपा के विरोधियों में चेतना का संचार हो गया. वह कोरोना को बंगाल चुनाव में भुनाने के लिए नरेंद्र मोदी और भाजपा पर तीखा हमला शुरू किया .आश्चर्य है कि उस दौरान ममता बैनर्जी भी जनसभा कर रही थीं, केरल, तमिलनाडु में राहुल गाँधी भी रैली कर रहे थे, लेकिन इनका निशाना केवल भाजपा पर था. ऐसा लगा जैसे भाजपा की रैली से ही कोरोना फ़ैल रहा है बाकि राजनेताओं की रैलियों में कोरोना का टीकाकरण हो रहा है. ऐसे चुनिन्दा विरोध के चलते ही इनकी लानत-मलानत होती रहती है पर ये लोग अब शर्म का त्याग कर चुके हैं. जैसे ही इनका एक एजेंडा विफल होता है अगला कौन सा एजेंडा होगा पूरी बेशर्मी से उसमें रम जाते और मुंह की खाते हैं. जब नरेंद्र मोदी पर आलोचनाओं की बौछार हो रही थी, मोदी की आलोचना के केंद्र में लेख अन्तराष्ट्रीय मीडिया में लिखे जा रहे थे उस दौरान नरेंद्र मोदी दस से अधिक बैठक कर चुके थे, जिसमें ऑक्सीजन की सप्लाई, टीकाकरण की समीक्षा, देश के प्रमुख चिकित्सकों आदि प्रमुख हैं. कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दल के साथ इन बौद्धिक तबके की माने तो केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरे इस संकट के समय बैठी है. विरोध का ऐसा भूत सवार की तथ्य पीछे छूट जा रहे हैं, तर्क से कोई वास्ता ही नहीं है इसका ताज़ा उदारहण सोशल मीडिया पर दिख रहा है कि ‘मोदी जी हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दी’ जैसी अज्ञातना है. फिलहाल की परिस्थिति में सरकार ने क्या किया है इसको भी समझना जरूरी है. सबसे पहले ऑक्सीजन की बात करते हैं. मार्च 2019 तक हमारे यहाँ 750 मैट्रिक टन ऑक्सीजन का उत्पादन होता था. आज सरकार के प्रयासों के कारण ही 7800 मैट्रिक टन ऑक्सीजन का उत्पादन प्रतिदिन हो रहा है. अभी जिला अस्पतालों में 551 पीएसए ऑक्सीजन संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं. डीआरडीओ 500 से अधिक पीएसए संयंत्र स्थापित करने का काम कर रही है. रेलवे ऑक्सीजन एक्सप्रेस चला कर राज्यों को ऑक्सीजन की आपूर्ति को सुनिश्चित कर रहा है. ऑक्सिजन पर लगने वाला सीमा शुल्क माफ कर दिया गया है. पीएम केयर फंड से 1 लाख पोर्टेबल ऑक्सीजन कॉन्सेंट्रेटर खरीदे जाएंगे. पीएम केयर के माध्यम से ही 1.5 लाख आक्सीकेयर सिस्टम खरीदे जाएंगे. आज देशभर में 1,306 ऑक्सीजन पीएसए संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं, जिसमें 1,213 पीएम केयर फंड के माध्यम से लगाया जा रहा है. पीएम केयर फंड को लेकर भी समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं यहाँ भी तथ्यों को गला घोंट कर झूठ फ़ैलाने की पूरी कोशिश हो रही है. आज पीएम केयर फण्ड के द्वारा ही राज्यों को दवाइयों, ऑक्सीजन आदि भी व्यवस्था हो रही है. 50 हजार वेंटीलेटर राज्यों को पीएम केयर फंड से ही प्रदान की गई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निरंतर दवाओं के उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया है. रेमडेसिविर की कालाबाजारी और कोरोना के बढ़ने मामले के बीच इस दवा की मांग अचानक बढ़ गई जिसके मद्देनजर सरकार ने रेमडेसिविर का उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया जिसका परिणाम भी सामने दिखा पहले 38 लाख शीशियाँ प्रति माह उत्पादन होता था जिसमें अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है आज 119 लाख शीशियों का उत्पादन प्रति माह हो रहा है. टेस्टिंग क्षमता को बढ़ाने की दिशा में भी सरकार ने काम किया है. वैक्सीन मैत्री को लेकर भी बेतुके सवाल उठाए जा रहे हैं. दूसरी तरफ जब अन्य देशों की आवश्यकता को भारत ने पूरा किया आज अमेरिका समेत अन्य देश भारत की मदद के लिए आगे आ रहे हैं. अंत में टीका की बात करें तो भारत ही ऐसा देश है जहाँ जीवनदायी टीका को लेकर भी सस्ती राजनीति की गई, कथित बौद्धिक लोगों ने टीका को लेकर भ्रम फैलाया जिससे आम लोगों में भय व्याप्त हो गया. यही लोग आज टीका की कमी आदि को लेकर प्रलाप कर रहे हैं. इन्होनें टीके को लेकर जो भ्रम फैलाया उसके लिए माफ़ी मांगनी चाहिए. बहरहाल, भारत कम समय में स्वदेशी टीका बनाने में सफल रहा है, विश्व का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान भारत में चल रहा है. सरकार इसको चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ा रही है अब युवाओं को भी टीका लगना शुरू हो चुका है. टीकाकरण में कोई रुकावट न आए इसके लिए भी सरकार ने वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाने के लिए 3000 करोड़ सीरम इंस्टीट्यूट को तथा 1500 करोड़ भारत बायोटेक को प्रदान किया है. भारत में लगभग 19 करोड़ वैक्सीन के डोज लग चुके हैं. सरकार हर पहलु पर नजर बनाए हुए है और उस दिशा में सक्रिय प्रयास भी कर रही है. यह संकट का समय है सरकार द्वारा किए जा रहे सभी प्रयास नाकाफी हो रहे हैं किन्तु सरकार कुछ नहीं कर रही ऐसा कहने वाले एजेंडाधारी लोग हैं. सरकार की नियत, नीति और इरादे स्पष्ट है. इस समय तथ्य और तर्क को ताक पर रखकर केवल सरकार और प्रधानमंत्री के लिए अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करने वाली जमात को यह सोचना चाहिए कि चाइनीज वायरस के खिलाफ चल रही लड़ाई में उनकी भूमिका कहीं संदिग्ध तो नहीं है!
पश्चिम बंगाल चुनाव परिणाम के बाद जो दृश्य देश के सामने आ रहे हैं वह हैरान करने वाले हैं. इस तरह की अराजकता, हिंसा और लोकतंत्र का उपहास शायद ही कभी देखने को मिला हो. पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि पश्चिम बंगाल से रोंगटे खड़ी कर देनी वाली खबरें आएँगी. ममता का चुनाव में विजयी होना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है, जनादेश का सम्मान किया जाना चाहिए, किन्तु इसमें मुझे संशय नहीं है कि पश्चिम बंगाल में आने वाले दिनों में लोकतंत्र बलतंत्र में परिवर्तित हो जाएगा, आराजकता को अधिक बल मिलेगा, कटमनी मुख्य व्यापार होगा और तुष्टीकरण की सभी सीमाओं को लांघ दिया जाएगा. ममता संघीय ढांचे में विश्वास नहीं रखती हैं वह पहले ही विभाजन की बात कह चुकी हैं और अलग राजधानी की मांग कर चुकी हैं. नीति आयोग की बैठकों को छोड़ना उनके लिए आम बात है, कोरोना संकट में राज्य के मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री की बैठकों में भी वह हिस्सा लेने से बचती आई हैं. सेना के रूटीन मार्च को वह तख्तापलट का संज्ञा दे चुकी हैं, भ्रष्टाचार के मामले में पुलिस कमिशनर के घर पड़े छापे के विरोध में ममता धरने पर बैठ जाती हैं. चुनाव आयोग उन्हें दुश्मन नजर आता है, सेना पर उन्हें विश्वास नहीं , वह पहले सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाती हैं और अभी चुनाव के दौरान केन्द्रीय सुरक्षा बलों को घेरने की बात करती हैं. यह फेहरिस्त बहुत लंबी हो सकती हैं. जो यह साबित कर सकती है कि ममता किस तरह से लोकतंत्र का उपहास करती आई हैं. इन सब तथ्यों को दरकिनार कर कथित निष्पक्षता का चोला पहनकर किन्तु-परन्तु नहीं किया जा सकता है. यह प्रमाणिक सत्य है. जो सबने देखा है. राजनीति में विचारों का विरोध इस तरह ममता पर छाया हुआ है जो नफरत और घृणा की पराकाष्ठा है. वह विरोध में इस तरह अंधी हो चुकी हैं कि जो चीज़ उनके अनुकूल नहीं होती वह संस्था व उसकी गरिमा को देखे बगैर अपनी ओछी राजनीति को साधने में लग जाती हैं. संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा को भी भंग करना उनका शगल हो चला है. इस रणनीति पर चलकर ममता राष्ट्रीय राजनीति की महत्वाकांक्षा रखती हैं तो इससे बड़ी विफल व क्रूर रणनीति नहीं हो सकती है. ऐसी राजनीति को स्वीकार करना भी सबसे बड़ी आराजकता है, जो इसे स्वीकार करे उसके लोकतांत्रिक आस्था पर भी बड़े प्रश्नचिन्ह खड़े हो जाएंगे. राजनीति में विरोध का यह कतई मतलब नहीं है कि आप मानवीयता को ही तिलांजलि दे दें. अब तो यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं कि जो व्यक्ति बंगाल में ममता तथा उनकी पार्टी के अनुकूल नहीं वह कभी भी अपनी जान से हाथ धो सकता है. यह सत्ता का अहंकार और दुरुपयोग आखिर कबतक चलेगा ? पांच साल बंगाल में क्या होने वाला है राज्य में फैली अराजकता उसका रोडमैप है. यह भयावह दौर बंगाली संस्कृति, अस्मिता पर सबसे बड़ा धब्बा है. बहरहाल, चुनाव परिणाम के बाद बंगाल में भाजपा के कार्यकर्ताओं पर निरंतर विभिन्न स्थानों पर हमले हो रहे हैं, चुनाव से पहले गत चार साल भी निरंतर रक्तरंजित राजनीति का खेल चलता रहा और देश का कोई दल इसके विरोध में नहीं बोला, लोकतंत्र पर जो लोग 2014 से खतरा मंडराता देख रहे हैं वह लोग इस फांसीवादी राजनीति का समर्थन करते रहे हैं. स्वभाव से वामपंथी विचारों के अनुसरण करने वाली ये बौद्धिक जमात बौद्धिक रूप से इतनी खोखली हो चुकी है कि उन्हें बंगाल में अराजकता कहीं नजर नहीं आ रही है और इस चुनाव के समय वह तृणमूल कांग्रेस के पिछलग्गू अथवा प्रचारक नजर आए. असल में लोकतंत्र की हत्या क्या होती है, तानशाही क्या होती है और फांसीवाद क्या होता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज पश्चिम बंगाल में दिख रहा है. तृणमूल कांग्रेस के लोग मिली विजय का जश्न खून की होली खेलकर मना रहे है, भाजपा कार्यकर्ताओं, समर्थकों के घर और दुकानों में लूट मची है. जगह-जगह आगजनी हो रही है, महिलाओं को प्रताड़ित किया जा रहा है. कुछ जगह महिलाओं के साथ बलात्कार की भी खबरें आ रही हैं. यह सभी कुकृत्य भारत के ही एक राज्य में हो रहे हैं जिस देश के लोकतंत्र को सबसे मजबूत बताया जाता है, वहाँ ये सब घटनाएं बेहद शर्मनाक और निंदनीय है. बात किसी दल अथवा विचार का नहीं है. यह कैसे संभव हो सकता है कि एक दल विजय के बाद पूरे प्रदेश में तांडव मचा दे, राज्य को हिंसा की लपटों में झोंक दे. यह दुस्साहस लोकतंत्र के लिए डरावना से कहीं अधिक लोकतंत्र के लिए कड़ी चुनौती है. मीडिया के हवाले से जो खबरें आ रही हैं अभीतक विजय के इस तांडव नृत्य में 12 लोग मारे गए हैं. यह आंकड़ा कहाँ जाकर रुकेगा कहना कठिन है. भाजपा के कार्यकर्ता एवं समर्थक इस तरह से भयग्रस्त हैं कि वह मदद के लिए दिल्ली की तरफ झाँक रहे हैं. जो पत्रकार बंगाल चुनाव को कवर करने गए थे उनसे मदद मांग रहे हैं. यह भयावह दृश्य कल्पना से परे है. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए राज्यपाल ने राज्य के अधिकारियों से रिपोर्ट मांगी है, गृह मंत्रालय भी चुनाव के बाद हुई हिंसा की रिपोर्ट मांगी है. इसी बीच भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा बंगाल दौरे पर हैं. ममता बैनर्जी इस हिंसा को रोक सकती थीं, लेकिन उन्होंने अभीतक कोई प्रभावी हस्तक्षेप नहीं किया, उनके सांसद इन हिंसात्मक घटनाओं को नकार रहे हैं, जो इस बात का संकेत दे रहा है कि इस हिंसा पर ममता बैनर्जी की मौन सहमति है. जल्द ममता बैनर्जी और उनकी पार्टी को नहीं रोका गया तो यकीन मानिए ममता हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर सामने आएँगी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना 70वां जन्मदिन मना रहे हैं. समाज जीवन में उनकी यात्रा बेहद लंबी और समृद्ध है .इस यात्रा कि महत्वपूर्ण कड़ी यह है कि नरेंद्र मोदी ने लोगों के विश्वास को जीता है और लोकप्रियता के मानकों को भी तोड़ा है. एक गरीब पृष्ठभूमि से निकलकर सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने की उनकी यह यात्रा हमारे लोकतंत्र और संविधान की शक्ति को तो इंगित करता ही है, इसके साथ में यह भी बताता है कि अगर हम कठिन परिश्रम और अपने दायित्व के प्रति समर्पित हो जाएँ तो कोई भी लक्ष्य कठिन नहीं है. 2001 में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बनते हैं, यहीं से वह संगठन से शासन की तरफ बढ़ते है और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज वह एक अपराजेय योध्हा बन चुके हैं. चाहें उनके नेतृत्व में गुजरात विधानसभा चुनाव की बात हो अथवा 2014 और 2019 लोकसभा चुनाव की बात हो सियासत में नरेंद्र मोदी के आगे विपक्षी दलों ने घुटने टेक दिए है. 2014 के आम चुनाव को कौन भूल सकता है. जब एक ही व्यक्ति के चेहरे पर जनता से लेकर मुद्दे तक टिक से गए थे. सबने नरेंद्र मोदी में ही आशा, विश्वास और उम्मीद की नई किरण देखी और इतिहास में पहली बार भाजपा को प्रचंड बहुमत प्राप्त हुआ एवं नरेंद्र मोदी पहली बार देश के प्रधानमंत्री बनें. 2014 से 2019 तक उन्होंने अपनी सरकार बड़ी कुशलता से चलाई. गत लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस समेत देश के एक बौद्धिक तबके ने नरेंद्र मोदी को रोकने के तमाम प्रयास किए, झूठे एजेंडे चलाए गए, लेकिन नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के आगे ये सब बेबस नज़र आए और नरेंद्र मोदी दुबारा पहले से अधिक मत प्रतिशत और सीटों के साथ सत्ता पर काबिज़ हुए. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने के उपरांत देश की राजनीति में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला है. पहला, विकास की राजनीति चर्चा के केंद्र में आई और दूसरा साहसिक नेतृत्व से होने वाले लाभ से जनता परिचित हुई. नरेंद्र मोदी एक के बाद ऐसे नई लकीर खींचते जा रहे जो अभूतपूर्व है, ऐतिहासिक है. अनुच्छेद 370,35A का निष्प्रभावी करना हो अथवा सर्जिकल और एयर स्ट्राइक करने का निर्णय हो, नई शिक्षा नीति हो, नागरिकता संशोधन कानून हो, प्रधानमंत्री ने यह साबित किया कि पूर्ण बहुमत की सरकार देश के विकास के साथ एकता अखंडता और स्वाभिमान को कैसे कायम रख सकती है.
अंत्योदय की प्रेरणा-
दीनदयाल उपाध्याय के मंत्र अंत्योदय को लेकर प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता उनके योजनाओं में दिखती है. प्रधानमंत्री गरीब से गरीब व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन लाने के लिए भगीरथ प्रयास कर रहे हैं, जिसमें वह सफल भी हुए हैं. मसलन, आज़ादी के बाद से 18 हजार से अधिक गांवो में बिजली नहीं थी. नरेंद्र मोदी सरकार ने उन गावों में तय समयावधि में बिजली पहुँचा उनके जीवन में रौशनी लाने का काम किया. उज्ज्वला योजना के तहत आठ करोड़ से अधिक महिलाओं को मुफ़्त में गैस सिलेंडर देकर उनके जीवन को धुएं से मुक्त किया. आयुष्मान भारत योजना के जरिये गरीबों को पांच लाख तक के मुफ्त इलाज की सुविधा प्रदान की गई है. इस योजना के तहत अबतक एक करोड़ से अधिक लोगों का इलाज मुफ्त में हो चुका है. महात्मा गांधी अंतिम जन की बात करते थे और पंडित दीनदयाल उपाध्याय अन्त्योदय की नरेंद्र मोदी ने अपनी नीतियों के माध्यम से समाज के अंतिम छोर के खड़े व्यक्ति के जीवन स्तर को उपर उठाने का काम किया है. किसानों के लिए सरकार ने नई नीतियों का निर्माण किया है किन्तु प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना किसानों को संबल प्रदान कर रही है. इस संकट के समय भी सरकार ने गत महीने इस योजना की छठी क़िस्त 8.5 करोड़ से अधिक किसानों के खाते में कुल 17,000 करोड़ की राशि ट्रांसफर कर दी है. प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत अभीतक दस करोड़ से अधिक किसानों को कुल 90,000 करोड़ रूपये की राशि हस्तान्तरित की जा चुकी है. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 1.75 करोड़ से अधिक आवास बन चुके हैं. यानी 1.75 करोड़ से अधिक गरीब परिवारों को पक्का मकान देने का काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया है. सौभाग्य योजना के अंतर्गत 2.62 कोरोड़ से अधिक घरों का विधुतीकरण किया गया है. इसी तरह उजाला योजना के तहत लगभग 37 करोड़ LED बल्ब का वितरण किया गया है. इन सब योजनाओं के द्वारा नरेंद्र मोदी ने गरीबों, किसानों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाया है. बीच-बीच में योजनाओं के लाभार्थियों से प्रधानमंत्री जिस तरह से संवाद स्थापित करते हैं उससे लाभार्थी भी यह चकित रह जाता है कि सरकार उनके द्वार पर आई है. असल में लोकतंत्र का अर्थ भी यही है कि सरकार गरीबों से सीधा संवाद करे, उन्हें समस्याओं से निजात दिलाए. और सरकार होने का एहसास कराए. यह कहने में कोई दोराय नहीं कि नरेंद्र मोदी ने गरीबों में विश्वास जगाने का काम किया है. जो उनकी लोकप्रियता का मूल है जिसे समझने में मोदी के विरोधी हमेशा से विफल रहे हैं. आज़ादी के 67 वर्षों के बाद भी लगभग आधी आबादी बैंक से नही जुडी थी, आज गर्व से कहा जा सकता है कि जनधन योजना के माध्यम से सबको बैंकिंग सिस्टम से जोड़ा गया है. इस कोरोना संकट के समय यह योजना रामबाण साबित हुई और सरकार ने पूरी पारदर्शिता के साथ गरीबों के खाते में उनका पैसा पहुँचाने में सफल रही है. आंकड़े बताते हैं कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत विभिन्न योजनाओं के 68,820 करोड़ रूपये 42.08 करोड़ लाभार्थियों के खाते में डीबीटी के माध्यम से भेज दिया गया है. कोरोना संकट के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई घोषणाएं की. जिसमें आत्मनिर्भर भारत अभियान, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण रोजगार अभियान. इन सभी का लक्ष्य एक है कि हमारे देश के विकास की गति ना रुके, कोई गरीब भूखा ना सोए, इस संकट के समय अपने गांव लौटे श्रमिक को उनके गांव–शहर में रोजगार मिल सके.इन सभी योजनाओं का क्रियान्वयन भी शुरू हो चुका है.
यह सब योजनाएं प्रधानमंत्री के जन कल्याण के प्रति संकल्प को प्रदर्शित करती हैं. नरेंद्र मोदी भारतीयता के गौरव को विश्व में स्थापित करने की दिशा में भी बेहतरीन सफलता हासिल की है. आज योग को वैश्विक मान्यता मिल चुकी है. इतना ही नहीं प्रधानमंत्री को कई देशों ने सर्वोच्च नागरिकता सम्मान प्रदान किया है. इसके अतिरिक्त कई वैश्विक पुरस्कार प्रधानमंत्री को प्राप्त हुए हैं. जैसे सियोल शांति पुरस्कार, संयुक्त राष्ट्र का चैंपियन ऑफ़ द अर्थ पुरस्कार, यूनाईटेड अरब अमीरात का जायेद मेडल समेत कई देशों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने देश का सर्वोच्च नागरिकता सम्मान देकर भारत का सम्मान किया है. प्रधानमंत्री की नीतियां और उनके द्वारा किये जा रहे कार्य यह बताते हैं कि नरेंद्र मोदी लोककल्याण के मंत्र को संकल्पबद्ध होकर पूरा करने में लगे हैं. यही कारण है कि देश की जनता उनके साथ चट्टान की तरह खड़ी दिखती है. यह संयोग ही है कि नरेंद्र मोदी की जितनी आलोचना मोदी है, वह उतना मजबूती से खड़े हो जाते है.
5 अगस्त की तारीख इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में अपने स्थान को मजबूती के साथ दर्ज करा ली है. बात मजबूती की इसलिए क्योंकि जब भी देश की अखंडता और संस्कृतिक गौरव को याद किया जायेगा, यही तारीख हमारे मानस पटल पर एक उमंगपूर्ण ऊर्जा लिए एकात्मता का एहसास कराएगी. 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को हटाकर, जहाँ नरेंद्र मोदी सरकार ने राष्ट्रीय एकता और अखंडता को लेकर एक दृढ़ संदेश दिया, वहीँ5 अगस्त 2020 को यह एहसास कराया कि भारत के सांस्कृतिक गौरव को पुनर्स्थापित करने के लिए जो संघर्ष हमारे देश ने किया उसका फल कितना आनंददायक होता है. रामजन्मभूमि पर राम का मंदिर बनाना एक ऐसी घटना है जो सदियों के संघर्ष के बाद घटित हुआ है और स्वभाविक है कि इसे सदियों तक याद रखा जायेगा. जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अयोध्या राममंदिर शुभारम्भ के लिए जाना तय हुआ तो सबके मन में कई सवाल खड़े हुए उनके जाने को लेकर भी सवाल उठे. खासकर कथित सेकुलर विरादरी ने संविधान की दुहाई देकर सवाल उठाए, कुछ कोरोना का हवाला दिया तो कुछ ने मुहूर्त को लेकर भी प्रलाप किया. इन प्रलापों को देखकर आमजन के मन में कोई सवाल उठा ऐसा महसूस नहीं हुआ क्योंकि ये वही विरादरी है, जो एक लम्बे कालखंड तक राम के आस्तित्व को नकारती आई है और मंदिर के विरोध की मसाल हाथ में लिए खड़े रहती है. इसलिए इनके इन सवालों को लोगों ने ‘दया’ व हास्य की दृष्टि से देखा. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के उपरांत इनके पास प्रलाप के अतिरिक्त कोई चारा बचा नहीं है फिरभी वो बड़ी सिद्दत से आज भी अनर्गल तर्कों के साथ बहस को आगे बढ़ाने की कोशिश में हास्य का पात्र बन रहे हैं. अब कांग्रेस का हृदय परिवर्तन ही देखिये एक तरफ दिग्विजय सिंह सहित कई कांग्रेसी निरंतर मंदिर निर्माण को लेकर सवाल उठा रहे हैं वहीँ कमलनाथ और मध्यप्रदेश कांग्रेस के स्वांग को देखकर लग रहा है कि ये लोग गलती से राजनीति में आ गये इन्हें तो किसी मठ-मंदिर में संत होना चाहिए था. वस्तुतः, कांग्रेस हर मुद्दे पर अपने ही जाल में फंस कर अपनी भद्द पिटवाने को लालायित रहती है. इस मुद्दे पर भी वही किया. आज सम्पूर्ण भारत आनंद से झूम रहा है, दिवाली के उमंग को महसूस कर रहा है आखिर करे भी क्यों नहीं, भारत के मर्यादापुरुषोत्तम का टाट और तम्बू से बनवास खत्म हुआ है, अब राम लला एक भव्य मंदिर में स्थापित होने जा रहे हैं. एक भजन है राम नाम सुखदायी... और इस सुख को प्रदान करने वाले महामंत्र को नकारने का कितनी चेष्टा हुई प्रधानमंत्री ने भी अपने उद्बोधन में इसको रेखांकित किया. लेकिन जो कण-कण में विद्यमान है, हमारे गौरवशाली संस्कृति के अग्रदूत हैं, उन्हें और उनके साधकों को कबतक षड्यंत्रकारी शक्तियाँ रोक सकती हैं. चुकी राम मर्यादा के भी पर्याय हैं इसलिए देश के बहुसंख्यक समाज ने मर्यादा में विश्वास रखा और उसका बखूबी पालन भी किया. हमें इस मर्यादा के पीछे का त्याग, तप, समपर्ण और संवैधानिक आस्था को भी रेखांकित करना चाहिए. देश के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के पालक श्रीराम को लेकर क्या-क्या नहीं कहा गया, बहुसंख्यक समाज के आदर्श पुरुष के आस्तित्व को ही खारिज करने का दुस्साहस निरंतर किया गया, यहाँ तक एक ‘महापुरुष’ ने तो उनकी माता को लेकर भी अभद्र टिप्पणी कर डाले, लेकिन राम की मर्यादा में बधे बहुसंख्यक समाज ने संयम और धैर्य का परिचय दिया. यह संयम और संघर्ष दस-बीस वर्ष का नहीं था बल्कि 492 वर्ष का लंबा संघर्ष. बावजूद इसके देश के सनातन धर्मावलम्बियों ने न्यायपालिका पर भरोसा रखा और अपने हक के लिए सभी तरह से लड़ाई लड़ी, जिसके परिणामस्वरुप9 नवम्बर 2019 को सुप्रीमकोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय सुनाया और5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्पूर्ण भारत की भवनाओं के अनुरूप श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के तत्वावधान में रामजन्मभूमि पर भव्य राममंदिर बनाने के कार्य को प्रारम्भ किया. यह संयोग ही है कि राम मंदिर को लेकर जिन संगठनों ने संघर्ष किया उसका नेतृत्व इस अवसर का साक्षी रहा और शुभ कार्य में अपना योगदान दिया. गौरतलब है कि राममंदिर को लेकर भाजपा और राष्ट्रीय स्वय सेवक संघ की प्रतिबद्धता शुरू से रही है. इन दोनों संगठनों ने भारत के स्वाभिमान राम के लिए आलोचनाओं की परवाह किये बगैर मंदिर बनाने का संकल्प लिया, आन्दोलन और संघर्षों में अग्रणी भूमिका निभाई और अपनी दृढ़इच्छाशक्ति से संकल्प को पूरा भी किया. मंदिर निर्माण शुभारम्भ के अवसर के सर संघचालक ने एक बहुत महति बात कही जिसके निहितार्थ बहुत गहरे हैं. उन्होंने कहा कि भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जिस आत्मविश्वास की आवश्यकता थी, जिस आत्मभान की आवश्कता थी, उसका सगुण-साकार अधिष्ठान बनने का शुभारम्भ आज हो रहा है.यह बहुत महत्वपूर्ण बात मोहन भागवत ने कही राम भारत के आस हैं और विश्वास भी, राम हर बाधाओं में अपने पुरुषार्थ से मर्यादाओं को केंद्र में रखते हुए राम बाहर आएं और विश्व के लिए प्रेरणास्रोत बनें. इसके साथ ही समरसता का संदेश देते हुए उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की बात भी कही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने वक्तव्य में रामत्व और राम के आदर्शों का विस्तृत जिक्र किया. उन्होंने कहा कि श्रीराम का मंदिर हमारे हमारी संस्कृति का आधुनिक प्रतीक बनेगा, हमारी आस्था एवं राष्ट्रीय भावना का प्रतीक बनेगा. उन्होंने भी आपनी भाईचारा, मानवता और अपने सरकार का मूल मंत्र सबका साथ-सबका विकास का जिक्र किया. राम भारतीयता और भारत के सांस्कृतिक गौरव के मुकुटमणि हैं, वह राष्ट्रीयता की पहचान है और इस पहचान को मिटाने की चेष्टा करने वाले लोग दुर्भाग्य से न्यायालय के निर्णय पर अब भी सवाल उठाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं. राम देश के राष्ट्र पुरुष हैं जाहिर है उनका मंदिर राष्ट्र मंदिर होगा. जो देश में समरसता, आस्था, मर्यादा का भाव जागृत करता रहेगा. यह मंदिर हमारे स्वाभिमान को जागृत करने वाला है और यह एहसास भी कराता रहेगा कि सत्य को कितना भी कुचलने का प्रयास हो वह एक दिन सूर्य की भांति प्रकाशमान होकर झूठ के अँधेरे को हमेशा के लिए मिटा देगा.राम मंदिर आंदोलन एक ऐसी गाथा है जो हमें सत्य के साथ अपने गौरव की रक्षा के लिए सर्वस्य अर्पण करने की प्रेरणा देता रहेगा. हमें उन सभी महापुरुषों, तपस्वीयों तथा इस आंदोलन में गिलहरी प्रयास करने वाले सभी व्यक्तियों का अभिनन्दन करना चाहिए क्योंकि आज रामत्व की जो स्थापना हुई हैं, वह राम राज्य के लिए है और यह सर्वविदित है कि राम राज्य में दुःख, कष्ट, गरीबी के साथ वैमनस्यता का कोई स्थान नहीं होता. यह राममंदिर हमें समतामूलक एवं मर्यादित समाज का पुर्ननिर्माण के लिए भी प्रेरित करता रहेगा.